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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Thursday, 20 June 2013

शुरुआत है केदारनाथ की घटना

वन, जीव और पर्यावरण की रक्षा का संदेश देने वाली कहानी, नाटक और फिल्में बनती रहती हैं। अधिकांश लोग बचपन से ही सुनते, पढ़ते और देखते आ रहे हैं। भारत के अधिकांश धार्मिक पर्व प्रकृति और पर्यावरण से ही जुड़े हैं, इसके बावजूद प्रकृति के विरुद्ध क्रियाकलाप लगातार बढ़ते जा रहे हैं। शाहरुख खान और करण जौहर ने वर्ष 1995 में काल नाम की फिल्म बनाई थी, जिसे सोहम शाह ने लिखा था और उन्होंने ही निर्देशित किया था, इस फिल्म में काली नाम के पात्र का अभिनय अजय देवगन ने किया था। काली को जंगल और वन्यजीवों से बेहद प्रेम था और वह उनकी रक्षा के लिए पर्यटकों की हत्या कर देता था। आज ऐसे ही व्यक्ति या कठोर कानून की आवश्यकता है, जिसका पालन कड़ाई से कराया जाना चाहिए। वन्यजीवों की बहुत सी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं, इनके संरक्षण के लिए तमाम योजनाएँ चल रही हैं और कानून भी हैं, इसके बावजूद आज भी वन्यजीवों का निरंतर शिकार हो रहा है, क्योंकि लोगों की सोच नहीं बदल रही, साथ ही कानून का कड़ाई से पालन कराने की दिशा में सरकार भी गंभीर नज़र नहीं आ रही। फिल्म अभिनेता सलमान खान पर काले हिरण के शिकार का आरोप है, जिसे लोग गंभीर बात नहीं मानते। अपने पालतू कुत्ते को कुछ हो जाए, तो लोग दवा दिलाते हैं, उसे कोई डंडा मार दे, तो लड़ जाते हैं, पर जंगल के जीवों के साथ हो रहे अत्याचार पर अधिकांश लोगों की आँखें नम नहीं होतीं। चीटी और मच्छर की तरह ही अधिकांश लोग खरगोश, सियार, भेड़िया, हिरण, बत्तख, लोमड़ी, मोर, कबूतर, तोता और कोयल की मौत को मानते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से तो है ही, धार्मिक दृष्टि से भी वन और जीवों का विशेष महत्व है, इनके मिटते ही सब कुछ खत्म हो जाएगा, मानव भी नहीं बचेगा। जो लोग भगवान को नहीं मानते, उन्हें यह मानना चाहिए कि भगवान पंच तत्व का संक्षिप्त नाम है। भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर, अर्थात पंच तत्व ही भगवान हैं, ऐसे में जो इन पंच तत्वों को दूषित करेगा, उसे सज़ा मिलनी ही है। पर्यटन के नाम पर अधिकांश लोगों का आचरण पंच तत्वों को नुकसान पहुंचाने वाला ही रहता है और सज़ा संपूर्ण मानव जाति के साथ निरीह जीवों को भी मिलती है, इसलिए भ्रमण या धार्मिक यात्रा की आड़ में वन और पहाड़ों पर प्रदूषण फैलाने की जगह जहां हैं, वहीं रहकर पर्यावरण को शुद्ध करने की दिशा में काम करने से अधिक पुण्य मिलेगा।  
खैर, कुछ दशकों पहले तक वन क्षेत्र के लोग भी फिल्म काल के काली की तरह ही पर्यटकों से चिढ़ते थे, पर सरकारी संरक्षण में वन क्षेत्रों का दोहन शुरू हुआ, तो वन क्षेत्र में रहने वाले बर्बाद हो गए। जो निश्चिंत थे, वह भूखे मरने के कगार पर पहुंचा दिये, साथ ही पैसे की ऐसी भूख जगा दी कि वह लोग खुद भी चाहने लगे कि दुनिया भर से लोग यहाँ आयें और कुछ दिन रहें। अपने घर में बिस्तर पर चादर झाड़ कर बैठने वाले लोग स्टेशन, बस अड्डा, हवाई अड्डा, रेल और बस में गंदगी फैलाते देखे जा सकते हैं, यही लोग वन क्षेत्र को प्रदूषित करते हैं और एक-दो सप्ताह के प्रवास में ही हाहाकार मचा देते हैं, जिस से वन क्षेत्रों के हालात भयावह होते जा रहे हैं। इसके अलावा खनन से गंभीर समस्या उत्पन्न हो रही है। प्रकृति का दोहन अति आवश्यक अवस्था में होना चाहिए, लेकिन हाल-फिलहाल माफिया पूरी तरह हावी हैं, सरकार दस प्रतिशत दोहन कर रही है और माफिया नब्बे प्रतिशत, जिसका दुष्परिणाम आम आदमी भुगत रहा है। मौसम और वातावरण में आश्चर्यचकित करने वाले परिवर्तन हो रहे हैं, वैज्ञानिकों की भविष्याणी निराधार साबित हो रही हैं, इस सब पर रोक नहीं लगी, तो जीवन समय से पहले ही समाप्त हो जाएगा। मैदान और पहाड़ एक-दूसरे के पूरक हैं, दोनों का ही सुरक्षित रहना आवश्यक है, तबाही पहाड़ पर होती है और दुष्परिणाम मैदान में नज़र आता है, इसलिए अब कड़े कानून बनाने और पालन करने का समय आ गया है। मैदान से वन और पहाड़ क्षेत्र में जाने का एक कोटा निश्चित होना चाहिए और फिर वहाँ के नियमों का कड़ाई से पालन भी कराना चाहिए, वरना अभी केदारनाथ में हुई भयावह घटना तो सिर्फ शुरुआत भर है।

Thursday, 6 June 2013

सपा-बसपा के सामने बेबस हैं कांग्रेस और भाजपा

लोकसभा चुनाव में अभी समय है, लेकिन राजनैतिक दल चुनाव की तैयारी में पूरी तरह जुटे नज़र आ रहे हैं। एक-एक नीति और योजना चुनाव को ध्यान में रख कर ही तैयार की जा रही है। हर दल जनता को लुभाने वाले फैसले लेते दिख रहे हैं, लेकिन बात उत्तर प्रदेश में हुये उपचुनाव की करें, तो कांग्रेस की नीति और योजनाओं के साथ भाजपा के नमो ग्लैमर को मतदाताओं ने पूरी तरह नकार दिया है।
उत्तर प्रदेश के हंडिया विधान सभा क्षेत्र में हुये उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के विजयी प्रत्याशी को 81, 655 मत मिले, वहीं दूसरे नंबर पर रहे बसपा प्रत्याशी को 54, 838 मत मिले, लेकिन भारत निर्माण का नारा देने वाली कांग्रेस के प्रत्याशी को 2, 880 और नरेंद्र मोदी के कंधों पर सवार होकर पूर्ण बहुमत मिलने का सपना देखने वाली भाजपा के प्रत्याशी को 3, 809 मत मिले हैं। कांग्रेस और भाजपा प्रत्याशी को मिले मतों से साफ है कि लोकसभा चुनाव में भी सपा-बसपा के बीच ही घमासान होना है। पिछले दिनों हुये एक सर्वे में भी यूपी से बसपा को सब से अधिक सीट मिलने की संभावना जताई गई थी, जिससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव के बाद भी राजनैतिक स्थिति में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं होने वाला। लोकसभा के लिए देश में सब से अधिक सांसद उत्तर प्रदेश से चुने जाते हैं और मुख्य राष्ट्रीय दल कांग्रेस व भाजपा उत्तर प्रदेश में हाल-फिलहाल जनाधार विहीन हैं, साथ ही लोकसभा चुनाव तक ऐसा कोई चमत्कार भी नहीं होने वाला, जिससे यूपी के मतदाताओं का झुकाव उनकी ओर हो जाये। कुल मिला कर यूपी के मतदाताओं के योगदान के बिना यूपीए या एनडीए को बहुमत नहीं मिल सकता। कमोबेश यही स्थिति रहनी है, जो इस समय है। इसमें कोई कुछ कर भी नहीं सकता, क्योंकि उत्तर प्रदेश पूरी जातिवाद के मकड़जाल में जकड़ा हुआ है। जातिवाद के चलते ही यूपी के मतदाता सपा और बसपा के बीच बंट गए हैं।
हंडिया उपचुनाव में सपा प्रत्याशी को मिली जीत के संबंध में कांग्रेस या भाजपा की ओर से यह कहा जा सकता है कि महेश नारायण सिंह की मौत के चलते उनके बेटे को सहानुभूति मिल गई, लेकिन बसपा प्रत्याशी को मिले मत बसपा की मजबूती साबित करने के लिए काफी हैं। उत्तर प्रदेश की जनशक्ति सपा-बसपा के पास है, ऐसे में कांग्रेस इन दोनों दलों में से किसी के भी साथ गठबंधन कर मैदान में उतरे, तो यूपी के साथ केंद्र की राजनीति का परिदृश्य कुछ और ही होगा। कुछ राजनैतिक जानकार तर्क देते हैं कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मतदाताओं की सोच भिन्न होती है, इसलिए विधानसभा चुनाव के परिणामों से लोकसभा चुनाव की तुलना नहीं की जा सकती, ऐसे लोग यूपी के जातीय मकड़जाल को अच्छे से समझ नहीं पाये हैं, क्योंकि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के समर्थकों के पास कोई राजनैतिक सोच है नहीं। उनके नेता का निर्णय उनके लिए आदेश है, उस आदेश को उनके समर्थक हर हाल में मानते रहे हैं और आने वाले चुनाव में भी मानेंगे। असलियत में माया-मुलायम के बीच राजनैतिक प्रतिद्वंदिता व्यक्तिगत रंजिश में बदल गई है, यही हाल समर्थकों का है, तभी शहर-शहर, गाँव-गाँव और बूथ-बूथ पर इन दोनों ही दलों के बीच जंग होती नज़र आती है। इसी सोच के चलते उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि सत्ता का हस्तांतरण हो रहा है और सत्ता हस्तांतरण के चलते ही माया-मुलायम और मजबूत हो रहे हैं, क्योंकि सत्ता सपा के हाथ में हो, तो बसपाईयों की नींद उड़ी रहती है और सत्ता बसपा के हाथ में हो, तो पाई लगातार बेचैन रहते हैं। उत्तर प्रदेश में एक बार गैर सपा और गैर बसपा की सरकार बन गई, तो यह दोनों ही दल राजनैतिक दृष्टि से कमजोर हो जायेंगे और इन दोनों दलों के कमजोर होने पर ही कांग्रेस या भाजपा को पैर रखने को जगह मिलेगी, तब तक केंद्रीय राजनीति में अस्थिरता रहना स्वाभाविक ही है। लोकसभा चुनाव तक यूपी में कोई बदलाव नहीं होने वाला, इसलिए मान लेना चाहिए कि लोकसभा चुनाव से देश की आर्थिक और राजनैतिक स्थिति और भी जर्जर होगी।

Friday, 10 May 2013

इस कहानी के हीरो हैं कुन्नू बाबू, खलनायक डीपी यादव और उमलेश हैं सिर्फ बेचारी

बाहुबली और धनबली के रूप में कुख्यात धर्मपाल सिंह यादव उर्फ डीपी यादव की पत्नी उमलेश यादव को पेड न्यूज का दोषी सिद्ध होने पर भारत निर्वाचन आयोग उत्तर प्रदेश की विधान सभा की सदस्यता से बर्खास्त करने के साथ भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 के तहत ही तीन वर्ष तक उनके चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा चुका है। उमलेश यादव आयोग के इस आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय की शरण में गईं, लेकिन उच्च न्यायालय ने आयोग के आदेश को सही मानते हुये हाल ही में उनकी याचिका खारिज की है, जिससे देश भर में नजीर बन चुका यह प्रकरण एक बार फिर सुर्खियों में है।
आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब भारत निर्वाचन आयोग ने किसी भी विधान सभा के किसी सदस्य को पेड न्यूज के आरोप में बर्खास्त किया हो। आयोग का यह निर्णय सदियों तक उदाहरण के रूप में याद किया जाता रहेगा, लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि यह इतिहास रचने वाले शख्स को कम ही लोग जान पा रहे हैं या यूं कहें कि उस शख्स की चर्चा अपेक्षा के अनुरूप नहीं हो रही। भारत निर्वाचन आयोग जिस आदेश को देने के लिए विवश हुआ और आयोग के उस आदेश पर उच्च न्यायालय भी अपनी मोहर लगा चुका है, वह आदेश योगेन्द्र कुमार गर्ग उर्फ कुन्नू बाबू के साहस का परिणाम है।

कौन है कुन्नू बाबू?
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योगेन्द्र कुमार गर्ग उर्फ कुन्नू बाबू बदायूं से मुरादाबाद की ओर जाने वाले मार्ग पर बसे जनपद बदायूं के कस्बा बिसौली के रहने वाले हैं। इनके पिता स्वर्गीय बाबू बृजबल्लभ बदायूं जिले की एक राजनैतिक हस्ती थे। वह बिसौली विधान सभा क्षेत्र से 1977 में विधान सभा के लिए निर्दलीय चुने गए एवं विधान परिषद के सदस्य के साथ जिला परिषद के अध्यक्ष भी रहे। 29 दिसंबर 1949 को जन्मे कुन्नू बाबू अपने पिता के निधन के बाद वर्ष 1984 में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर ही चुनाव लड़े, तो जनता ने उन्हें भी हाथों-हाथ लिया। चुनाव जीतने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए। 1989 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए, इसके बाद बदायूं में कांग्रेस समाप्त हो गई, तो वह समाजवादी पार्टी में चले गए। 1996 में वह सपा के टिकट प जीते और वर्ष 2002 के चुनाव में सपा प्रत्याशी के रूप में ही डीपी यादव के कुख्यात बेटे विकास यादव को लगभग 2250 मतों से पराजित कर एक तरह से इतिहास ही रचा, क्योंकि कुन्नू बाबू का चुनाव खर्च उन दिनों हजारों के दायरे में ही रहता था, जबकि विकास यादव के चुनाव में डीपी ने रुपया पानी की तरह बहाया था, साथ ही फिल्म कलाकारों ने गाँव-गाँव प्रचार किया था। इसी चुनाव के बाद मतगणना होने से पहले ही नितीश कटारा कांड हो गया था और विकास यादव अचानक पिता डीपी की तरह ही राष्ट्रीय स्तर पर कुख्यात हो गया था। इसके बाद वर्ष 2007 के चुनाव में डीपी यादव ने बिसौली क्षेत्र से अपनी पत्नी उमलेश यादव को अपने राष्ट्रीय परिवर्तन दल से चुनाव मैदान में उतार दिया। चुनाव प्रचार, मीडिया और जनता पर अपार धन लुटाया गया, साथ ही गुटबंदी के चलते स्थानीय सपा नेताओं ने भी उमलेश यादव का ही साथ दिया, तो अकेले पड़े कुन्नू बाबू यह चुनाव हार गए। इसके बाद परिसीमन के चलते बिसौली विधान सभा क्षेत्र सुरक्षित क्षेत्र घोषित हो गया। सपा ने दूसरे किसी विधान सभा क्षेत्र से उन्हें टिकट नहीं दिया, तो कुन्नू बाबू पुनः कांग्रेस में शामिल हो गए और पिछले चुनाव में सहसवान विधान सभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतर गए। यहाँ से डीपी यादव अपनी पार्टी राष्ट्रीय परिवर्तन दल से प्रत्याशी थे, लेकिन इस क्षेत्र से सपा के ओकार सिंह यादव विजयी घोषित हुये, पर डीपी यादव की हार में कुन्नू बाबू की अहम भूमिका मानी जाती है। वह खुद तो न जीते, पर कहा जाता है कि उन्होंने अपनी पिछली हार का बदला डीपी से ले लिया।
विज्ञान से ग्रेजुएट कुन्नू बाबू में गज़ब की राजनैतिक समझ है। उनकी मैमोरी, सिंद्धांत व नैतिकता के दीवाने उनके विरोधी भी हैं। बिसौली विधान सभा क्षेत्र के अपने प्रत्येक समर्थक को चेहरे और नाम से पहचानते ही नहीं हैं, बल्कि उन्हें यह भी जानकारी है कि उसका गाँव में घर किस दिशा में है और उसके घर के पास पेड़, स्कूल, मंदिर-मस्जिद अस्पताल वगैरह भी है। चुनाव के बाद हर बूथ की जानकारी उन्हें कंठस्थ रहती है कि किस बूथ पर उन्हें कितने मत मिले। समर्थकों की तुलना में दो-चार मत कम निकलने पर वह यह पता लगा कर ही मानते हैं कि किस व्यक्ति ने उन्हें इस बार वोट नहीं दिया। क्षेत्र और समर्थकों के बारे में व्यक्तिगत तौर पर इस तरह की जानकारी होने के कारण ही लोग उनके पास सहायता के लिए झूठ बोल कर कभी नहीं आ पाते। आज के नेताओं की तरह क्षेत्र और गांवों की छोटी-छोटी राजनीति में दिलचस्पी लेने की बजाए, वह विकास पर विशेष ध्यान देते रहे हैं, यही वजह है कि बदायूं जिले की तुलना में बिसौली विधान सभा क्षेत्र में विकास अधिक हुआ।
सिद्धान्त और नैतिकता के दायरे में सेवा भाव से राजनीति करने वाले कुन्नू बाबू का मोह राजनीति से अब भंग हो चला है। वह कहते हैं कि अब जाति-धर्म और पैसों के बल पर चुनाव हो रहे हैं, ऐसे में उनके पास न जाति है और न ही पैसा। कहते हैं कि समाज के लिए बहुत कुछ किया, लेकिन अब अपने लिए जीना चाहते हैं। बिसौली में ही उन्होंने एक टू-व्हीलर की एजेंसी ले ली है, जिस पर बैठ कर वह मस्त हैं। एजेंसी पर आने वाले अधिकांश लोग उनसे यही कहते हैं कि बाबू जी राजनीति मत छोड़िए, आप जैसे लोगों की बहुत जरूरत है। इस पर वह कहते हैं कि आम आदमी बहक जाये, तो उसे सही मार्ग पर लाया जा सकता है, पर आज के बड़े नेताओं की हालत और भी खराब है। बोले- नेता जैसे दिखते हैं, वैसे हैं नहीं। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध उनका साथ किसी ने नहीं दिया, पैसे भी नहीं थे, पर वह लड़ते रहे। उन्होंने बताया कि भारत निर्वाचन आयोग में याचिका दाखिल करने के बाद बहस करने के लिए वह वकील के पास गए, तो वकील ने कहा कि बहस हो पाये या न हो पाये, वह शाम तक साथ रहने के पचास हजार रुपए लेगा। कुन्नू बाबू ने बताया कि वकील को देने को उनके पास इतने रुपए नहीं थे, सो खुद ही लिखित बहस दाखिल कर दी, जिसे आयोग ने माना और फिर उनके पक्ष में आदेश भी सुनाया।
क्या हैं आरोप?
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कुन्नू बाबू ने धन के बल पर मीडिया और पंपलेट के सहारे दुष्प्रचार कर आम मतदाताओं में भ्रम पैदा करने का आरोप लगाते हुये भारतीय प्रेस परिषद और भारत निर्वाचन आयोग में वाद दायर कर उमलेश यादव को अयोग्य करार देने का निवेदन किया था।
क्या हुई कार्रवाई?
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कुन्नू बाबू की शिकायत भारतीय प्रेस परिषद की जांच में सत्य पाई गई। पीसीआई ने 31 मार्च 2010 को उनके पक्ष में आदेश जारी किया, इसी तरह भारत निर्वाचन आयोग ने 20 अक्टूबर 2011 को उमलेश याद को अयोग्य करार देते हुये तीन वर्ष तक उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी। आयोग का यह निर्णय इतिहास में दर्ज हो चुका है, जो आने वाले कई दशकों तक उदाहरण के रूप में याद किया जाता रहेगा।

कौन है उमलेश यादव?
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उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब और हरियाणा में शराब माफिया के साथ बाहुबली और धनबली के रूप में कुख्यात डीपी यादव की उमलेश यादव पत्नी हैं। डीपी यादव की छोटी बेटी भारती यादव से प्रेम संबंध होने के विरोध में डीपी यादव के बड़े बेटे विकास यादव ने नितीश कटारा को मौत के घाट उतार दिया था, उस समय विकास यादव खुद बिसौली विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और मतगणना होने से पहले आनर किलिंग में फंस गया था। इसके बाद वर्ष 2007 के चुनाव में उमलेश यादव बिसौली क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरीं और पानी की तरह पैसा बहा कर जीत गईं, जिन्हें बाद में कुन्नू बाबू की शिकायत पर अयोग्य करार दिया जा चुका है। उमलेश यादव स्वयं में बेहद शालीन और मृदुभाषी महिला हैं, उनसे मिल चुके लोग उनका सम्मान करते हैं, लेकिन माफिया डीपी यादव की पत्नी होने के चलते वह विवादों में आ गईं।
आपराधिक मुकदमों के चलते कार्रवाई से बचने के लिए शातिर दिमाग डीपी यादव ने कागजों में उमलेश यादव से तलाक भी ले लिया है, जिसका शपथ पत्र प्रमाण के रूप में सीजेएम गाजियाबाद की अदालत में मौजूद है। अपनी शिकायत में कुन्नू बाबू ने इस तथ्य का भी उल्लेख किया है।

कौन है डीपी यादव?
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जिला गाजियाबाद में नोएडा सेक्टर-18 के पास एक गाँव शरफाबाद में धर्मपाल यादव नाम का एक आम आदमी था, जो जगदीश नगर में डेयरी चलाता था और रोजाना साइकिल से दूध दिल्ली ले जाता था। अति महत्वाकांक्षी धर्मपाल यादव 1970 के दशक में शराब माफिया किंग बाबू किशन लाल के संपर्क में आ गया और यही शख्स धर्मपाल यादव से धीरे-धीरे डीपी यादव के रूप में कुख्यात होता चला गया। शराब माफिया किशन लाल डीपी यादव को एक दबंग गुंडे की तरह इस्तेमाल करता था और डीपी शराब की तस्करी में अहम भूमिका निभाता था। डीपी यादव कुछ समय बाद ही किशन लाल का पार्टनर बन गया। इन दोनों का गिरोह जोधपुर से कच्ची शराब लाता था और पेकिंग के बाद अपना लेबल लगा कर उस शराब को आसपास के राज्यों में बेचता था। जगदीश पहलवान, कालू मेंटल, परमानंद यादव, श्याम सिंह, प्रकाश पहलवान, शूटर चुन्ना पंडित, सत्यवीर यादव, मुकेश पंडित और स्वराज यादव वगैरह डीपी के गिरोह के खास गुर्गे थे। 1990 के आसपास डीपी की कच्ची शराब पीने से हरियाणा में लगभग साढ़े तीन सौ लोग मर गए। इस मामले में जांच के बाद दोषी मानते हुये हरियाणा पुलिस ने डीपी यादव के विरुद्ध चार्जशीट भी दाखिल की थी। पैसा, पहुँच और दबंगई के बल पर धीरे-धीरे डीपी यादव अपराध की दुनिया का स्वयं-भू बादशाह हो गया। दो दर्जन से अधिक आपराधिक मुकदमों के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए घातक सिद्ध होने लगा, तो 1991 में इस पर एनएसए के तहत भी कार्रवाई हुई। इसके बावजूद इसने 1992 में अपने राजनैतिक गुरु दादरी क्षेत्र के विधायक महेंद्र सिंह भाटी की हत्या करा दी, जिसमें इसके विरुद्ध सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया। इस हत्या के बाद गैंगवार शुरू हुआ, जिसमें डीपी के गुर्गों ने कई लोगों को मारा, वहीं डीपी के पारिवारिक सदस्यों के साथ उसके कई खास लोगों की बलि चढ़ गई। कहा जाता है कि ताबड़तोड़ हत्याओं से जब डीपी और उसके दुश्मन तंग आ गए और हर समय भय से परेशान हो उठे, तो दोनों ने गोपनीय समझौता कर लिया कि दोनों शांति से जीवन जीयें। डीपी पर नौ हत्या, तीन हत्या के प्रयास, दो डकैती के साथ तमाम मुकदमे अपहरण और फिरौती वसूलने के भी लिखे जा चुके हैं एवं एनएसए के साथ टाडा और गैंगस्टर एक्ट के तहत भी कार्रवाई हो चुकी है। इस पर हत्या का पहला मुकदमा गाजियाबाद के कवि नगर थाने में दर्ज किया गया। अधिकांश मुकदमे हरियाणा के अलावा उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, बुलंदशहर और बदायूं जिले में दर्ज हैं। बहुचर्चित केस जेसिका लाल हत्याकांड में भी इसका नाम उछला था और मनु शर्मा के साथ इसका बेटा विकास यादव दोषी सिद्ध हो चुका है।
अकूत संपत्ति अर्जित करने बाद भी डीपी यादव की छवि एक गुंडे और माफिया वाली ही थी, जिससे निजात पाने के लिए यह छटपटा रहा था। 80 के दशक में कांग्रेस के बलराम सिंह यादव ने इसे कांग्रेस पिछड़ा वर्ग का जिला गाजियाबाद का जिला अध्यक्ष बना दिया, तो डीपी ने नवयुग मार्केट में कार्यालय खोल कर उस पर विशाल बोर्ड लगाया। मतलब नेता बनने की चाह इसके अंदर पहले से ही गहरे तक थी। इसी बीच यह महेंद्र सिंह भाटी के संपर्क में आ गया और वह ही इसे राजनीति में लाये। पहली बार डीपी यादव विसरख से ब्लाक प्रमुख चुना गया। इसके बाद मुलायम सिंह यादव के संपर्क में आ गया। कहा जाता है कि पार्टी गठन करने के बाद मुलायम सिंह यादव को धनाढ्य लोगों की जरूरत थी। डीपी को मंच चाहिए था और मुलायम सिंह यादव को पैसा, सो दोनों का आसानी से मिलन हो गया। मुलायम सिंह यादव ने इसे बुलंदशहर से टिकट दिया और यह धनबल बाहुबल का दुरुपयोग कर आसानी से जीत गया। सरकार बनने पर मुलायम सिंह यादव ने इसे मंत्रि मंडल में शामिल किया और पंचायती राज मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दी, लेकिन जिस पैसे के लिए मुलायम सिंह यादव ने डीपी यादव को हाथों-हाथ लिया था, उसी पैसे के कारण मुलायम सिंह यादव ने डीपी यादव से दूरी बना ली। कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव के करीबियों और पार्टी के खास नेताओं को डीपी यादव आए दिन कीमती तोहफे भेजता था। डीपी यादव पार्टी पर हावी होता, उससे पहले मुलायम सिंह यादव ने डीपी से ही किनारा कर लिया, तब से मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार से डीपी लगातार टकरा रहा है। खुद मुलायम सिंह यादव को संभल लोकसभा क्षेत्र से चुनौती दे चुका है, पर हार गया था, इसके बाद प्रो. रामगोपाल यादव के विरुद्ध भी चुनाव लड़ा, पर कामयाबी नहीं मिली। पिछले लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव के भतीजे धर्मेन्द्र यादव के विरुद्ध बदायूं लोक सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और इस चुनाव में भी हार गया। इसके बाद यह भाजपा और बसपा में भी रहा और एक-एक कर जब सबने किनारा कर लिया, तो अपनी राष्ट्रीय परिवर्तन दल नाम की पार्टी गठित कर ली, जो बदायूं और संभल क्षेत्र में पहचान बना चुकी है। डीपी यादव संभल लोकसभा क्षेत्र से सांसद एवं राज्यसभा सदस्य के साथ बदायूं के सहसवान क्षेत्र से विधायक रह चुका है। पिछली बार पूर्ण बहुमत की बसपा सरकार आने पर इसने अपने दल का बसपा में विलय कर लिया था और धनबल व बाहुबल के साथ सत्ता का दुरुपयोग कर अपने भतीजे जितेंद्र यादव को एमएलसी बना दिया। अपने साले भारत सिंह यादव की पत्नी पूनम यादव को जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन करा दिया।
डीपी यादव को उसके गुर्गे मंत्री जी कह कर पुकारते हैं। मंत्री जी कहलाना उसे पसंद भी है। डीपी के गुर्गे आम जनता के बीच दावा करते हैं कि मंत्री जी सिद्धांतवादी हैं, इसलिए बड़े नेताओं ने उनके विरुद्ध फर्जी मुकदमे दर्ज करा दिये हैं, जबकि मंत्री जी नैतिकता के दायरे में रहने वाले बड़े ही सभ्य और शालीन व्यक्ति हैं। उनके गुर्गे हैं, तो वह तो कुछ भी दावा करेंगे ही, लेकिन गाजियाबाद पुलिस डीपी यादव को ऐसा अपराधी मानती है, जो कभी नहीं सुधर सकता, तभी गाजियाबाद पुलिस इसकी हिस्ट्रीशीट खोल चुकी है। गाजियाबाद पुलिस सही भी लगती है, क्योंकि जो डीपी यादव कभी हथियारों के बल पर लूट करता था, वह आज कानून का सहारा लेकर लूट रहा है। डीपी आज अरबों रुपए की हैसियत वाला शख्स है, लेकिन आज भी धोखाधड़ी करने से बाज नहीं आ रहा। कस्बा बिसौली के पास रानेट चौराहे पर उसने यदु शुगर मिल नाम से फैक्ट्री खोली है, इस जमीन को डीपी ने धोखाधड़ी कर के ही हड़पा है।
शातिर दिमाग डीपी ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ अपने गुर्गों के नाम पट्टे आवंटित कराये और बाद में सभी पट्टों का श्रेणी परिवर्तन करा कर यदु शुगर मिल के नाम बैनामा करा लिया, जबकि नियमानुसार ऐसा नहीं कर सकते। कानून के जानकारों का कहना है कि पट्टे जिस उद्देश्य से दिये गये हैं, वह उद्देश्य पट्टाधारक पूरा नहीं कर रहा है, तो पट्टे नियमानुसार निरस्त कर दिये जाने चाहिए, साथ ही पट्टे गलत सूचना के आधार पर जारी किये हैं, क्योंकि समस्त पट्टाधारक पहले से ही धनाढ्य हैं और बड़े शहरों में निवास करते हैं, लेकिन सभी को बिसौली तहसील क्षेत्र के गांव सुजानपुर का निवासी दर्शाया गया है। इसके अलावा संबंधित जमीन खतौनी में खार के रूप में दर्ज है, जिसका पट्टा ही नहीं किया जा सकता। डीपी यादव द्वारा कराये गये फर्जी पट्टे वर्ष 1991 के बताये जाते हैं, लेकिन वर्षों तक इस बात को जानबूझ कर दबाया गया, क्योंकि सात वर्षों के बाद पट्टों का श्रेणी परिवर्तन कराया जा सकता है। श्रेणी परिवर्तन के बाद फर्जीवाड़े का खुलासा हुआ। इसके बाद मामला शासन-प्रशासन के संज्ञान में आया, तो छानबीन की गयी, लेकिन पट्टों से संबंधित कोई रिकॉर्ड कहीं नहीं मिला। राजस्व अभिलेखागार की ओर से 3० मई 211 को स्पष्ट रिपोर्ट लगाई गयी कि पट्टों से संबंधित कोई रिकॉर्ड उसके पास नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि अब फाइल प्रकट हो गयी है और इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि संबंधित लेखपाल और तहसीलदार जीवित ही नहीं हैं, वहीं संबंधित एसडीएम सेवानिवृत हो गये हैं। सूत्रों का कहना है कि डीपी यादव ने सेटिंग के चलते फर्जी पत्रावली तैयार कराई है। लेखपाल रमेश और तहसीलदार चिंतामणी के कार्यकाल के पट्टे दर्शाये गये हैं, जिनका निधन हो चुका है, ऐसे में वह आकर गवाही नहीं दे सकते, साथ ही एसडीएम रामदीन हिन्दी के सरल हस्ताक्षर करते थे, उनके हस्ताक्षर फर्जी बनाये गये हैं। उक्त प्रकरण में शिकायत पर पिछली बसपा सरकार ने कार्रवाई के निर्देश भी दिये थे, लेकिन तत्कालीन डीएम अमित गुप्ता एवं एडीएम प्रशासन मनोज कुमार ने रुचि नहीं ली। पट्टेधारकों की सूची में डीपी यादव के दोनों बेटों के साथ उनके परिवार के अन्य सदस्यों, प्रतिनिधियों और नौकरों के ही नाम हैं, साथ ही पट्टाधारक छोटे बेटे कुनाल को मिल का डायरेक्टर बनाया गया है। कुल 33 पट्टे हैं, जो संजीव कुमार,  जयप्रकाश, सत्यपाल, देवेन्द्र, राकेश, लोकेश, नरेश कुमार, विजय, जितेन्द्र, सत्तार, सतेन्द्र, विक्रांत, बीना, सरिता, विजय कुमार, मंजीद, विकास, कुनाल, रमेश, राजेन्द्र, नरेश, भूदेव, नवरत्न, दीपक, विवेक पुत्र श्री कमल राज, भारत, पवन, विजय, विवेक पुत्र श्री मदन लाल, अरुण, मनोज, धर्मेन्द्र और अभिषेक के नाम से जारी कराये गए हैं। मतलब अरबों की संपत्ति अर्जित कर धर्मपाल यादव से डीपी यादव बनने वाले इंसान की सोच आज भी धर्मपाल यादव वाली ही है, फिर भी वह अपेक्षा करता है कि लोग उसे किसानों का मसीहा कहें। स्कूल और कालेज खोले हैं, इसलिए लोग उसे महापुरुष कहें। डीपी को यह ज्ञान नहीं है कि लोग लगातार डकैती डालने वाले व्यक्ति को बाल्मीकी जैसा सम्मान नहीं दे सकते।
खैर, डीपी यादव की फर्श से अर्श तक की ज़िंदगी हकीकत से ज्यादा कहानी गती है, लेकिन कहानी है नहीं, इसलिए आम आदमी का दिल दहलाने के लिए काफी है, ऐसे शातिर अपराधी के सामने टिके रह कर लगातार लड़ते रहना वाकई, बड़ी बात है। कुन्नू बाबू ने उमलेश यादव से नहीं, बल्कि डीपी जैसे शख्स से जंग लड़ी, इसलिए उनकी जंग के मायने और भी बढ़ जाते हैं।
क्या है ताज़ा मामला?
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योगेन्द्र कुमार गर्ग उर्फ कुन्नू बाबू की शिकायत पर भारत निर्वाचन आयोग द्वारा अयोग्य घोषित करने के साथ उमलेश यादव पर तीन वर्ष तक चुनाव लड़ने का प्रतिबंध भी लगाया गया था, इस आदेश के विरुद्ध उमलेश यादव उच्च न्यायालय की शरण में गईं, लेकिन न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति भारती सप्रू ने याची की दलीलों को आधारहीन मानते हुये 3 मई को याचिका खारिज कर दी, जिससे पूरा प्रकरण पुनः चर्चा में बना हुआ है।