घटना लगभग दो दशक
पुरानी है। मैं दोस्तों के साथ छत पर बैठा था। हल्का अंधेरा हो गया था। पापा रोज लगभग इसी समय आते
रहे हैं। उस दिन उनके चेले के साथ पीछे एक लड़की भी बैठी थी। दूर से देख कर मैंने
सोच लिया कि बुआ की बेटी होगी। कुछ देर बाद खाना खाने पहुंचा, तो देखा कि एक कोने में कुर्सी के नीचे अंजान
और डरी-सहमी लड़की बैठी हुई थी। मैंने मम्मी से धीरे से पूछा कि कौन है?
मम्मी ने बताया कि
कहीं सड़क किनारे बैठी रो रही थी,
पापा की नज़र पड़ गई, तो साथ ले आए, तभी
पापा आ गए। बोले- इस लड़की से कोई सवाल-जवाब मत करना, इसे खाना खिला कर सुला दो। अगले दिन सुबह उसे देखा, तो देखने से ही अहसास हो रहा था कि किसी
अच्छे परिवार में पली-बढ़ी है। सुंदर तो थी ही, गुमसुम होने के कारण प्यारी भी लग रही थी। अब उसके
चेहरे पर भय नहीं था, पर एक
अंजान परिवार में रहने का संकोच बरकरार था। एक तरफ बैठी सबको एक-एक कर निहार रही
थी, बोल कुछ नहीं रही थी। पापा ने टेलर बुला कर उसके लिए दो सलवार-सूट सिलने को दे दिये। घर से जाते समय पापा ने उसके सिर पर हाथ फेरा, तो उसका चेहरा छोटे बच्चे जैसा हो गया, उसकी आँखें गीली हो गईं। कुछ देर बाद मैं भी चला गया।
शाम को लौट कर आया, तो बिल्कुल बदली हुई थी। वह मम्मी के साथ नए कपड़ों में चहकती हुई मिली। मम्मी ने बताया कि
आज पूरे दिन इसी से बातें की हैं, पर समझ में एक
बात भी नहीं आई। वह हिंदी न बोल पाती
थी और न समझ पाती थी। उसकी किड़बिड़-किड़बिड़ ने
मम्मी को पका दिया था, पर मम्मी ने उसका नामकरण कर दिया था। एक दिन
में ही वह
खुद भी समझ गई कि उसका नाम सीता है। लगभग दो सप्ताह में मम्मी ने उसे इतना सिखा दिया कि छोटे बच्चे
की तरह वो हमारी और हम उसकी बात समझने लगे। मुझ से एक-दो साल बड़ी रही
होगी, पर मुझ से भैया कहती थी और
पापा-मम्मी को पापा-मम्मी।
सीता अब परिवार का ही अंग बन चुकी थी। उसका पापा से विशेष लगाव होना स्वाभाविक ही था, पर
मुझे भी बहुत प्यार करती थी। मैं सुबह को नहाने से
पहले बाइक को पोंछता था, तो वह मुझसे रोज
कपड़ा झपटती थी। मैं उसे रोज यह बोल कर भगा देता कि यह तुम्हारे करने का काम नहीं
है, फिर नल पर टब भरने आ जाती, तो उसे समझाते कि भाई के लिए पानी नहीं
भरते। मैं उसे कुछ हिंदी और कुछ इशारों में चिढ़ाता कि अपने पति के
लिए भरा करना, तो यह सुन कर शुरू
में शांत हो जाती, पर बाद में वह
भी कुछ
हिंदी और कुछ इशारों में समझाने लगी कि पति की इतनी औकात नहीं होगी, जो उसे वह पानी
भर कर देगी। सीता हम सबके बीच
सहज तो हो गई थी, लेकिन उसके मन
में अपने लोगों के बीच लौटने का सपना था। उसके सपने को हम साकार करना चाहते थे, लेकिन हम उसके बताए पते को समझ ही नहीं पाये।
पड़ोस के गाँव में एक बंगाली डाक्टर था, उसे लाकर उससे बात कराई, पर वह मद्रासिन थी, सो बंगाली डाक्टर की समझ
में भी कुछ नहीं आया। इस सबके बीच सब कुछ ठीक था, लेकिन एक दिन मैं और पापा शाम को लौट कर आए, तो सीता नहीं मिली। मम्मी स्नान कर रही थी, तब वह चली गई। किसी ने बताया कि बस अड्डे के
आसपास थी, किसी ने उसे बस में
जाते देखा, हम सबको उसके इस तरह जाने का दुख था, लेकिन शायद, सगी बहन नहीं थी, इसलिए पीछा नहीं किया, पर यह चिंता जरूर थी कि कहाँ गई होगी। बोल कर जाती, तो रुपए तो दे देते। कपड़े भी नहीं ले गई। वो
जा चुकी थी, लेकिन हम लोग उसे
भुला नहीं पा रहे थे। पापा तक सीता की तरह बात करते थे, जाने के बाद भी सीता हम लोगों के बीच थी।
धीरे-धीरे एक साल गुजर गया। पास के कस्बा इस्लामनगर में मैं एक
दोस्त के साथ चौराहे पर खड़ा जूस पी रहा था, तभी सामने एक औरत पर मेरी नज़र पड़ गई, वह सीता ही थी, उसके बाल जिंबाबे के क्रिकेटर मलिंगा जैसे हो गए थे, सलवार-सूट का रंग और उसकी कढ़ाई बिल्कुल नहीं
दिख रही थी। उस समय मोबाइल नहीं थे,
मैंने एक सीमेंट की दुकान में लगे फोन से घर फोन किया और मम्मी को बताया कि सीता इस्लामनगर में है, यह सुन कर मम्मी खुश हो गई और बोली कि उससे कुछ कहना
मत, प्यार से घर ले आओ। फोन काट
कर मैं दौड़ कर उसी स्थान पर आया,
तो सीता पास आ चुकी थी, उसकी नज़र
मुझ पर ही थी, पर मुझे देख कर भी
उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। बिल्कुल सामने आ गई, तो मैंने धीरे से कहा, सीता। नाम सुन कर भी उसे
कुछ नहीं हुआ और छोटी-छोटी डग
रखते हुये आगे निकल गई, उसने मुझे नहीं पहचाना। उसके
ऐसा करने के बाद मेरी नज़र उसके पूरे शरीर पर पड़ी, जिसे देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए, धड़कन बढ़ गई। लग रहा था कि चीख कर सीता से
लिपट जाऊँ, पर पूरी शक्ति लगाने
के बाद भी मेरे कदम उसकी ओर नहीं बढ़े। मुझ में उसे देखने की भी
हिम्मत नहीं बची थी, वो गर्भवती थी। लगभग
आठ-नौ महीने का गर्भ था। मेरे साथ जो दोस्त खड़ा था, उसे सीता के बारे में पता था। मैंने इशारे से बताते हुये उससे
धीरे से कहा
कि वो सीता है, तो वो भी स्तब्ध
रह गया। बोला- इसके साथ हैल्पर,
कंडक्टर, ड्राईवर, रिक्शे वाले और नशेड़ी लगभग रोज ही बलात्कार
करते हैं, वह पूरी तरह पागल हो चुकी है। आते-जाते इसे कोई नोंचता है, कोई गुदगुदी कर छेढ़ता है, शुरू
में गाली देती थी, पर अब किसी से कुछ नहीं कहती। मौन
ही रहती है, कोई कुछ खाने को
दे दे, तो ठीक, वरना
मांगती भी नहीं है। वो जैसे-जैसे बोल रहा था, मेरा
दर्द बढ़ता जा रहा था, सो बात टालने के लिए मैंने विषय बदल दिया।
घर पहुँचने से पहले ही मैंने सोच
लिया कि मम्मी को यही बताऊंगा कि सीता जैसी ही थी, धोखा
हो गया, सीता नहीं थी, वरना
वह कहती कि पागल हो गई है, तब
तो जरूर लेकर आओ। मैं उस दुख में पूरे
परिवार को शामिल नहीं करना चाहता था। उस दिन
के बाद मैंने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि सीता का क्या हुआ? शायद,
वो अब इस दुनिया में नहीं है, पर
मैं जब किसी ऐसी औरत को देखता हूँ,
तो आँखों के सामने सीता खड़ी नज़र आती है, उसके साथ गुजारे दिन ताज़ा हो जाते हैं। फिर सोचता हूँ कि काश! मम्मी ने
उसका नाम सीता न रखा होता, ऐसे-ऐसे विचार आते हैं, अपराध बोध सा होने लगता है, तो अपनी आत्मिक शांति के लिए साथ में यह भी
सोच लेता हूँ कि इंसान किसी की किस्मत नहीं बदल सकता।
असलियत में सीता उन
हजारों महिलाओं में से एक थी,
जिन्हें आज भी जानवरों की तरह बेचा जाता है, उनके गरीब माँ-बाप इस उम्मीद से इस इलाके के लोगों से
विवाह कर देते हैं कि गरीबी की उस नरक जैसी ज़िंदगी से कम से कम उनकी बेटी तो निकल ही जायेगी।
कुछेक की ज़िंदगी संवर भी जाती है,
पर अधिकांश का शोषण ही होता है। उन्हें दलाल यहाँ लाकर कई-कई जगह बेचते हैं, कई बार तो चार-पाँच भाई मिल कर एक ही औरत खरीद लेते हैं और
सब मिल कर हर दिन बलात्कार करते हैं, ऐसे ही हैवानों से किसी तरह बच कर निकल भागी थी सीता। शायद, मुरादाबाद के किसी गाँव में लाई गई थी, जहां से भागने के बाद किसी ने उसे हमारे इलाके में
उतार दिया था। खैर, मैं सीता के
लिए तो कुछ नहीं कर पाया, पर
महिलाओं के खरीद-फरोख्त के धंधे पर इस आशा से लिखता रहता हूँ कि शासन-प्रशासन
सक्रिय हो जाये, तो कम से कम कोई
और सीता न बने। दो-चार महिलाओं को भी सीता बनने से बचा पाया, तो सीता की आत्मा को शांति देने वाली सच्ची श्रद्धांजलि होगी।