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Friday 25 November 2011

प्रधानमंत्री या न्यायाधीश पर विश्वास करना ही पड़ेगा

भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के इरादे से जन लोकपाल विधेयक बनाने की दिशा में कदम आगे बढ़ ही रहे हैं, पर संसदीय स्थायी समिति ने प्रधानमंत्री को लोकपाल के अधीन लाने की सिफारिश को बहुमत से नामंजूर कर दिया, जिससे फिर बहस छिड़ गयी है कि प्रधानमंत्री या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश विधेयक के दायरे में होने चाहिए या नहीं। इस मुद्दे पर आम आदमी को सिर्फ एक ही बात समझायी जा रही है कि प्रधानमंत्री व उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश लोक सेवक ही होते हैं और वे भी विधेयक के दायरे में आने चाहिए। इस मुद्दे पर अधिकांश लोगों की राय यही है कि प्रधानमंत्री सहित सभी विधेयक के दायरे में आने चाहिए। असलियत में कुछ लोग आम आदमी से जैसा समर्थन चाहते हैं, वैसी ही बात प्रचारित व प्रसारित कराते हैं और एक पक्षीय जानकारी होने के कारण आम आदमी उसी राग को अलापने लगता है, जबकि आम आदमी तक गुण व अवगुण समान रूप से पहुंचाने चाहिए, क्योंकि सकारात्मक व नकारात्मक दोनों तरह की जानकारी होने पर ही व्यक्ति सही निर्णय ले पाता है, अन्यथा बाद में जब अवगुण प्रकाश में आते हैं, तो विश्वास घटने के साथ भविष्य में होने वाले आंदोलनों को लेकर भी आम आदमी में नीरसता का भाव उत्पन्न हो जाता है, यही कारण है कि सामान्य तौर पर अब आम आदमी राजनीतिक दलों के आह्वान पर घर से बाहर नहीं निकलना चाहता।
आश्चर्य की बात यह भी है कि देश के जाने-माने अधिकांश विद्वान भी प्रधानमंत्री को विधेयक के दायरे में लाने के पक्ष में ही खड़े नजर आ रहे हैं। सबके अपने तर्क हैं, जो गलत नहीं कहे जा सकते, पर व्यवहारिक दृष्टि से अगर कल्पना की जाये, तो प्रधानमंत्री को विधेयक के दायरे में लाने के दुष्परिणाम का अहसास किया जा सकता है।
सबसे पहला सवाल तो यही है कि गांव के प्रधान से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक किसी पर भी विश्वास न करना सही है क्या और अगर विशाल देश के व दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित लोकतंत्र के प्रधानमंत्री पर भी विश्वास नहीं करने से दुनिया में अच्छा संदेश जायेगा क्या? चलो, माना यह अपमान की भी बात नहीं है, लेकिन जिस देश में एक प्रधानमंत्री तक ईमानदार व कर्तव्य निष्ठ या विश्वास पात्र नहीं मिल सकता, उस देश में इस बात की क्या गारंटी है कि लोकपाल ईमानदार ही होगा और अगर लोकपाल के ईमानादार या कर्तव्य परायढ़ होने की गारंटी है, तो फिर एक प्रधानमंत्री ईमानदार क्यूं नहीं हो सकता? इतना तो विश्वास करना ही पड़ेगा, वरना लोकपाल सुपर सरकार का रूप भी ले सकता है और विकास कार्यक्रमों या योजनाओं पर ध्यान देने की बजाये सरकार के पांच वर्ष लोकपाल को संतुष्ट करने में ही बीत जाया करेंगे। 
इसके अलावा सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री के साथ लोकपाल भी बेईमान निकल आया, तो उन दोनों में समझौते होने से कौन रोकेगा, ऐसी स्थिति से बचने के लिए क्या एक और सुपर लोकपाल बनाया जाना चाहिए, फिर उसके ऊपर भी और फिर उसके ऊपर पर भी? ऐसा संभव है क्या और अगर ऐसा संभव ही नहीं है, तो फिर एक प्रधानमंत्री पर विश्वास क्यूं नहीं करना चाहिए?
प्रधानमंत्री या न्यायाधीशों की ही तरह लोकपाल भी हम सबके बीच का ही व्यक्ति होगा, उसके भी परिवार होगा, उसके भी तमाम रिश्ते होंगे। ऐसे में उसके परिवार का ही कोई व्यक्ति किसी तरह के अपराध में लिप्त हो, तो क्या वह न्यायाधीश पर उसके साथ नरमी बरतने का दबाव नहीं बनायेगा और उस स्थिति में न्यायाधीश लोकपाल की सिफारिश मानने के लिए बाध्य नहीं होगा और जो न्यायाधीश उस स्थिति में भी लोकपाल की सिफारिश नहीं मानेगा, तो फिर उसे लोकपाल के दायरे में लाने की आवश्यकता ही क्या है?
खैर, तमाम तरह की आशंकायें हैं, पर आशंकाओं के सहारे देश नहीं चलते, देश वास्तव में चलता है और देशहित या लोकतंत्र के हित की बात यही है कि उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठने वाले व्यक्ति पर विश्वास किसी भी कीमत पर करना ही पड़ेगा, वरना आशंका तो यह भी हो सकती है कि प्रधानमंत्री देश द्रोहियों से भी सांठ-गांठ कर सकता है, तो क्या उसकी प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखने के लिए रॉ को लगा देना चाहिए। ऐसी आशंकाओं का यही मतलब है कि हमें स्वयं पर ही विश्वास नहीं है।