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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Monday, 19 December 2011

यमराज से ज्यादा कर्जदार से डरता है गरीब

विद्वानों के द्वारा संपूर्ण सृष्टि में मानव ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति बताई गयी है, लेकिन समय के साथ यह सच बदलता नजर आ रहा है, क्यों कि अब समृद्धशाली मानव होना ही सर्वश्रेष्ठ कृति हो गया है। सर्वश्रेष्ठ योनि का गरीब मानव धरती पर स्वयं को एक बोझ से अधिक और कुछ नहीं समझता, तभी मौत का रास्ता चुनने में उसे अधिक खुशी और सुकून नजर आता है। दिल दहला देने वाले इस सच का दु:खदायी उदाहरण गरीबी के चलते देश के विभिन्न राज्यों में मौत को गले लगाने वाले वह किसान हैं, जो आज कल राजनीति चमकाने का केन्द्र बने हुए हैं। किसानों की मौत की इन भयावह घटनाओं पर किसी को कोई सरोकार नहीं है।
देश स्पष्ट रूप से दो वर्गों में बंट गया है। एक ओर भारत में रहने वाले सत्तर प्रतिशत गरीब हैं, तो दूसरी ओर इंडिया में रहने वाले तीस प्रतिशत समृद्धशाली लोग हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों की एक लोकप्रिय कहावत है कि बघटा से ज्यादा टपका का डर है, मतलब गरीब के लिए बाघ से ज्यादा छत टपकने का डर रहता है और यह डर वही महसूस कर सकते हैं, जिनकी रातें फूंस की छत के नीचे इधर-उधर खिसकते हुए बड़ी कठिनाई से गुजरती हैं। छत टपकने के डर को संगमरमर की बहुमंजिली इमारतों में रहने वाले महसूस कर ही नहीं सकते। इसी तरह गरीब के दिल में यमराज से ज्यादा कर्जदार की दहशत रहती है और यही दहशत इस हद तक पहुंच जाती है कि कर्जदार से छुटकारा पाने के लिए यमराज को चुनना गरीब के लिए आसान रास्ता नजर आता है, लेकिन गरीब की गरीबी पर तरस खाना तो दूर की बात है, देश के भाग्य विधाता राजनेता गरीब की मनोदशा को महसूस तक करना पसंद नहीं करते, उल्टे मौत की इन दु:खद घटनाओं पर राजनीति चमकाने से भी बाज नहीं आते।
इंडिया में रहने वाले समृद्धशाली सैकड़ों रुपये प्रति दिन फोन पर उड़ा देते हैं। हजारों रुपये पेट्रोल पर फंूक देते हैं और मन में मनोरंजन का भाव आ जाये, तो कुछ ही घंटों में लाखों रुपये पार्टियों पर बहा देते हैं। खाने की बात ही छोडिय़े, ऐसे समृद्धशाली लोग सैकड़ों रुपये प्रति दिन का पानी पी जाते हैं। ऐसे लोगों को क्या पता कि देश में ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें भरपेट रोटी तक नहीं मिल रही। रोटी तो बहुत बड़ी बात हैं, इस गरीब तबके को पीने के लिए साफ पानी तक नहीं मिल पा रहा। एक ओर जुकाम होने पर एयर कंडीशन अस्पतालों में बीमारी के नाम पर एंजॉय करने वाले लोग हैं, तो दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो बीमारी की चपेट में आने पर बीमारी के चंगुल से मर कर ही छूटते हैं। एक ओर ऐसे लोग हैं, जो अपने बंगले में लाखों रुपये का पेंट कराते हैं और पसंद न आने पर अगले ही दिन फिर रंग बदलवा देते हैं, तो दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं, जो छप्पर की एक झोपड़ी के लिए भी तरस रहे हैं। खैर, जरूरत गरीब भारत और समृद्धशाली इंडिया का गढ्ढा पाटने की है, लेकिन राज्यों या केन्द्र सरकार के एजेंडा या कार्यप्रणाली को देख कर कहीं नहीं लगता कि वह इस खाई को पाटने के लिए गंभीर हैं। असमानता की यह खाई पाटना तो बहुत बड़ी बात है, सरकारें तात्कालिक समस्या का समाधान करने के लिए काम करती नहीं दिख रहीं, जबकि मौत की सूची में गरीबों के नाम लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। बात सिर्फ उत्तर प्रदेश की करें, तो पार्कों, मूर्तियों या अन्य औचित्यहीन कार्यों पर खर्च करने के लिए धन की कोई कमी नहीं है, पर बुंदेलखंड के किसानों का दर्द प्रदेश की मुखिया मायावती को भी नहीं दिख रहा।