चुनाव सुधार की बातें चुनाव के दौरान सुनाई तो देती हैं, पर चुनाव बाद नेताओं की तरह ही गायब हो जाती हैं, जबकि लोकतंत्र की नींव मजबूत करने के लिए चुनाव प्रक्रिया में सुधार होना बेहद जरूरी है, साथ ही चुनाव संबंधी एक-एक नियम का पालन कड़ाई से होना चाहिए, अन्यथा संसद या विधान मंडलों में माफिया, गुंडे, भ्रष्ट, दलाल, जातिवादी, क्षेत्रवादी, कटटरपंथी व देश द्रोही ताकतें पहुंचती ही रहेंगी, लेकिन चुनाव सुधार की चर्चा के दौरान सबसे पहला सवाल निकल कर यही आता है कि सुधार की शुरूआत कहां से की जाये?
उक्त सवाल में दागी राजनेता भारत निर्वाचन आयोग को फंसा देते हैं और जैसा चलता आ रहा है, वैसा ही चलता रहता है। आयोग भी उल्टा-सीधा चुनाव करा कराने के बाद संतुष्ट हो बैठ जाता है, जबकि इस मुद्दे पर चुनाव पूर्व ही विस्तार से मंथन कर कार्रवाई शुरू करने की जरूरत है। असलियत में वर्तमान में भी कड़े नियम हैं, पर जरूरत उन्हें चुनाव के दौरान कड़ाई से लागू कराने की है। इस मुद्दे पर आयोग यह कह ही नहीं सकता कि इस मामले में वह कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि चुनाव के दौरान संपूर्ण शक्ति उसके पास होती है, जिसका प्रयोग वह कभी भी कर सकता है। जुगाड़बाजी के दौर में राजनेता नियमों की अनदेखी ही नहीं करते, बल्कि आसानी से बच भी निकलते हैं, तभी उनके हौसले बढ़ते चले जाते हैं और जनप्रतिनिधि बनने के बाद राजनीति का व्यापार की तरह ही उपयोग करते हैं, क्योंकि वह जनहित करने नहीं, बल्कि स्वहित करने इरादे से ही राजनीति में आये हैं, इसलिए हानि-लाभ उनके दिमाग में हमेशा रहता है और उसी के आधार पर वह अपने फैसले लेते हैं, तभी जनादेश के विपरीत सरकारें बनवा या गिरवा देते हैं। आयोग जब तक इस मुद्दे पर और गंभीर नहीं होगा, तब तक यह लोग ऐसी ही मनमानी करते भी रहेंगे और इनका कोई कुछ नहीं कर पायेगा।
चुनाव के दौरान सबसे पहली प्राथमिकता होती है कि चुनाव भयमुक्त वातावरण में शांति पूर्वक हो जायें, तभी आयोग भयमुक्त वातावरण बनाने के चक्कर में ही उलझ कर रह जाता है और शातिर दिमाग नेता धनबल, बाहुबल, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद व वर्गवाद का जहर फैलाते रहते हैं। इसी तरह प्रत्याशियों के खर्च की सीमा निश्चित है, आयोग स्पष्ट निर्देश देता भी रहता है कि निर्धारित खर्च से अगर किसी ने अधिक धन खर्च किया, तो उसके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायेगी, लेकिन यह निर्देश व चेतावनी अधिकांशत: हवाई ही साबित होती रही है, क्योंकि अधिकांश प्रत्याशियों के खर्च की सीमा पार ही हो जाती है, पर कागजी आंकड़ेबाजी के खेल में माहिर होने के कारण आयोग की कार्रवाई से साफ बच भी जाते हैं, इसलिए सबसे पहले खर्च की सीमा के नियम का पालन कराने की जरूरत है। अगर आयोग खर्च की निर्धारित सीमा के अन्तर्गत चुनाव करा पाने में सफल हो जाये, तो अन्य कई तरह की परेशानियों से स्वयं ही निजात मिल जायेगी। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चुनाव में माफिया, भ्रष्ट, दलाल व दो नंबर का धंधा करने वाले धन वर्षा करते हैं। यह सब कर वह आसानी से चुनाव जीत जाते हैं, ऐसे में अगर इन पर अंकुश लग गया, तो ऐसे प्रत्याशी चुनाव जीत ही नहीं पायेंगे और जब जीत नहीं पायेंगे, तो जीतने के बाद होने वाली तमाम तरह की खरीद-फरोख्त पर स्वत: ही रोक लग जायेगी, क्योंकि शातिर किस्म के नेता सत्तासुख के लिए व दो नंबर का धंधा करने वाले नेता स्वहित के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, पर दो नंबर का धंधा करने वाले नेता अगर राजनीति में नहीं रहेंगे, तो सामान्य नेता भ्रष्टाचार की सीमा लांघने से पहले कई बार सोचेंगे और घृणित हो चुकी राजनीति पुन: साफ होती नजर आने लगेगी।
देश के किसी न किसी भाग में चुनाव होते ही रहते हैं। वर्तमान की बात की जाये, तो उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। आयोग के सामने इन राज्यों में हिंसामुक्त चुनाव कराने की महत्वूपर्ण जिम्मेदारी है, पर याद रखना चाहिए कि बाकी जिम्मेदारियां भी आयोग की ही हैं, क्योंकि राजनेता भय के बगैर स्वत: सुधरने से रहे। इस लिए आयोग को इस मुद्दे पर पैनी नजर रखनी ही होगी, अगर आयोग इन राज्यों में दो नंबर का धंधा करने वाले नेताओं को रोकने में कामायाब हो गया, तो उसकी हिम्मत और बढ़ेगी, जिससे आने वाले समय में बाकी राज्यों में भी दोगुने हौसले के साथ नियम का पालन करा पायेगा, साथ ही दो नंबर का धंधा करने वालों के हौसले पस्त होंगे। हालांकि आयोग ने एक एजेंट रखने का सुझाव रखा है, लेकिन वह फार्मूला बेईमानी को नहीं रोक पायेगा।
उक्त सवाल में दागी राजनेता भारत निर्वाचन आयोग को फंसा देते हैं और जैसा चलता आ रहा है, वैसा ही चलता रहता है। आयोग भी उल्टा-सीधा चुनाव करा कराने के बाद संतुष्ट हो बैठ जाता है, जबकि इस मुद्दे पर चुनाव पूर्व ही विस्तार से मंथन कर कार्रवाई शुरू करने की जरूरत है। असलियत में वर्तमान में भी कड़े नियम हैं, पर जरूरत उन्हें चुनाव के दौरान कड़ाई से लागू कराने की है। इस मुद्दे पर आयोग यह कह ही नहीं सकता कि इस मामले में वह कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि चुनाव के दौरान संपूर्ण शक्ति उसके पास होती है, जिसका प्रयोग वह कभी भी कर सकता है। जुगाड़बाजी के दौर में राजनेता नियमों की अनदेखी ही नहीं करते, बल्कि आसानी से बच भी निकलते हैं, तभी उनके हौसले बढ़ते चले जाते हैं और जनप्रतिनिधि बनने के बाद राजनीति का व्यापार की तरह ही उपयोग करते हैं, क्योंकि वह जनहित करने नहीं, बल्कि स्वहित करने इरादे से ही राजनीति में आये हैं, इसलिए हानि-लाभ उनके दिमाग में हमेशा रहता है और उसी के आधार पर वह अपने फैसले लेते हैं, तभी जनादेश के विपरीत सरकारें बनवा या गिरवा देते हैं। आयोग जब तक इस मुद्दे पर और गंभीर नहीं होगा, तब तक यह लोग ऐसी ही मनमानी करते भी रहेंगे और इनका कोई कुछ नहीं कर पायेगा।
चुनाव के दौरान सबसे पहली प्राथमिकता होती है कि चुनाव भयमुक्त वातावरण में शांति पूर्वक हो जायें, तभी आयोग भयमुक्त वातावरण बनाने के चक्कर में ही उलझ कर रह जाता है और शातिर दिमाग नेता धनबल, बाहुबल, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद व वर्गवाद का जहर फैलाते रहते हैं। इसी तरह प्रत्याशियों के खर्च की सीमा निश्चित है, आयोग स्पष्ट निर्देश देता भी रहता है कि निर्धारित खर्च से अगर किसी ने अधिक धन खर्च किया, तो उसके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायेगी, लेकिन यह निर्देश व चेतावनी अधिकांशत: हवाई ही साबित होती रही है, क्योंकि अधिकांश प्रत्याशियों के खर्च की सीमा पार ही हो जाती है, पर कागजी आंकड़ेबाजी के खेल में माहिर होने के कारण आयोग की कार्रवाई से साफ बच भी जाते हैं, इसलिए सबसे पहले खर्च की सीमा के नियम का पालन कराने की जरूरत है। अगर आयोग खर्च की निर्धारित सीमा के अन्तर्गत चुनाव करा पाने में सफल हो जाये, तो अन्य कई तरह की परेशानियों से स्वयं ही निजात मिल जायेगी। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चुनाव में माफिया, भ्रष्ट, दलाल व दो नंबर का धंधा करने वाले धन वर्षा करते हैं। यह सब कर वह आसानी से चुनाव जीत जाते हैं, ऐसे में अगर इन पर अंकुश लग गया, तो ऐसे प्रत्याशी चुनाव जीत ही नहीं पायेंगे और जब जीत नहीं पायेंगे, तो जीतने के बाद होने वाली तमाम तरह की खरीद-फरोख्त पर स्वत: ही रोक लग जायेगी, क्योंकि शातिर किस्म के नेता सत्तासुख के लिए व दो नंबर का धंधा करने वाले नेता स्वहित के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, पर दो नंबर का धंधा करने वाले नेता अगर राजनीति में नहीं रहेंगे, तो सामान्य नेता भ्रष्टाचार की सीमा लांघने से पहले कई बार सोचेंगे और घृणित हो चुकी राजनीति पुन: साफ होती नजर आने लगेगी।
देश के किसी न किसी भाग में चुनाव होते ही रहते हैं। वर्तमान की बात की जाये, तो उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। आयोग के सामने इन राज्यों में हिंसामुक्त चुनाव कराने की महत्वूपर्ण जिम्मेदारी है, पर याद रखना चाहिए कि बाकी जिम्मेदारियां भी आयोग की ही हैं, क्योंकि राजनेता भय के बगैर स्वत: सुधरने से रहे। इस लिए आयोग को इस मुद्दे पर पैनी नजर रखनी ही होगी, अगर आयोग इन राज्यों में दो नंबर का धंधा करने वाले नेताओं को रोकने में कामायाब हो गया, तो उसकी हिम्मत और बढ़ेगी, जिससे आने वाले समय में बाकी राज्यों में भी दोगुने हौसले के साथ नियम का पालन करा पायेगा, साथ ही दो नंबर का धंधा करने वालों के हौसले पस्त होंगे। हालांकि आयोग ने एक एजेंट रखने का सुझाव रखा है, लेकिन वह फार्मूला बेईमानी को नहीं रोक पायेगा।