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Saturday, 24 December 2011

समानता के अधिकार का हनन कर रहा है आरक्षण

गहन मंथन के बाद दो वर्ष ग्यारह महीना व अठारह दिन में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़े संविधान की रचना की गयी, जिसे 26 जनवरी 195० को देश में विधिवत लागू कर दिया गया। संविधान का मूल स्वरूप वास्तव में उत्तम ही है, क्योंकि संविधान की रचना के दौरान रचनाकारों के मन में जाति या धर्म नहीं थे। उन्होंने जाति-धर्म दरकिनार कर देश के नागरिकों के लिए एक श्रेष्ठ संविधान की रचना की, तभी नागरिकों को समानता का विशेष अधिकार दिया गया, लेकिन संविधान में आये दिन होने वाले संशोधन मूल संविधान की विशेषता को लगातार कम करते जा रहे हैं।
माना जा सकता है कि देश की आजादी के दौरान कुछ जातियों के लोगों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी, तभी सामाजिक व आर्थिक दृष्टि के आधार पर डा. भीमराव अंबेडकर ने बेहद कमजोर स्थिति वाले जाति वर्ग को एक दशक तक आरक्षण देने का सुझाव रखा, जिसे बेहद जरूरी मानते हुए मान लिया गया, लेकिन अब वही आरक्षण व्यवस्था घृणित राजनीति का शिकार होती जा रही है। संविधान के अनुसार नागरिकों को समानता का अधिकार मिला हुआ है, जिसके अनुसार जाति व वंश के आधार पर कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं है। देश या कानून की नजर में सब एक समान ही हैं, लेकिन आरक्षण की व्यवस्था ने इस अधिकार के मायने ही बदल दिये हैं। समानता के अधिकार के बीच स्पष्ट रूप से आरक्षण व्यवस्था आड़े आने लगी है। आरक्षण का मूल उदेद्श्य समाज के दबे-कुचले लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति सुदृढ़ कर समतामूलक समाज की स्थापना करना ही था, लेकिन अब वही आरक्षण गंभीर समस्या बनती रहती है, वहीं आरक्षण का लाभ आरक्षण के दायरे में आने वाली सभी जातियों के सभी लोगों को भी समान रूप से नहीं मिल पा रहा है। भ्रष्टाचार का राक्षस इतना प्रभावी हो गया है कि आरक्षण का लाभ संबंधित जातियों के दस या पन्द्रह प्रतिशत धनाढ्य लोग ही उठा पा रहे हैं, साथ ही आरक्षण विहीन जातियों के लोगों को लगने लगा है कि आरक्षण के चलते उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। आरक्षण से समाज के किसी वर्ग को कोई आपत्ति न थी और न है, पर घृणित राजनीति के चलते किसी न किसी राज्य में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति व पिछड़े वर्ग में एक-दो जाति को और शामिल कर दिये जाने का क्रम चलता ही रहता है और अब धर्म के आधार पर भी बांटने की परंपरा शुरू हो गयी है, जिससे सामान्य वर्ग में सवर्ण कही जाने वाली कुछेक या अंगुलियों पर गिनने लायक ही जातियां बची हैं और जो बची हैं, उनमें भी उनके जातिगत संगठन या राजनीतिक दल आरक्षण के दायरे में लाने की मांग करते देखे जा सकते हैं, हो सकता है, एक दिन बाकी बची जातियों को भी आरक्षण के दायरे में शामिल करा दिया जाये, ऐसे में सिर्फ ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य ही बचेंगे, जबकि आज के आंकड़े बताते हैं कि अब इन तीनों जातियों या सामान्य वर्ग में आने वाली सभी जातियों की भी आर्थिक या सामाजिक स्थिति सुदृढ़ नहीं है।
सवाल यह भी उठता है कि एक ओर केन्द्र व राज्य सरकारें, तमाम राजनीतिक दल, दलित नेता एवं तमाम बुद्धिजीवी वर्ण व्यवस्था के तहत चली आ रही जाति व्यवस्था को समाप्त करने की बात करते हैं और दूसरी ओर उसी जाति व्यवस्था के तहत आरक्षण दिया जा रहा है, ऐसे में जातिगत आधार पर दूरियां बढऩे के साथ नफरत बढऩी स्वाभाविक ही है। आरक्षण विहीन सामान्य वर्ग में आने वाली जातियों के लोगों को अब यह लगने लगा है कि आरक्षण के चलते उन्हें पीछे धकेलने का प्रयास किया जा रहा है, तभी कई जगह कुछ जातियों के लोगों का आक्रोश आंदोलन के रूप में सामने आता रहता है। राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर चलने वाले आंदोलन का भयावह रूप लोग देख ही चुके हैं। इससे केन्द्र सरकार के साथ देश के बाकी राज्यों की सरकारों को भी सबक लेना चाहिए, क्योंकि यह आक्रोश बाकी जातियों के अंदर भी सुलगता देखा जा सकता है, जो कभी भी निकल कर बाहर आ सकता है। गृह युद्ध जैसे हालात उत्पन्न होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए समय रहते केन्द्र या राज्य सरकारों को आरक्षण के मुद्दे पर गहन मंथन कर लेना चाहिए और जाति व्यवस्था के तहत दिये जा रहे आरक्षण को गरीबी के आधार पर तत्काल परिवर्तित कर देना चाहिए, इससे कई अन्य तरह की समस्याओं पर भी स्वत: ही विराम लग जायेगा।
मूल संविधान कहता है कि किसी जाति या वंश में जन्मा व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं है। हर नागरिक भारतीय है और सभी के अधिकार समान हैं, तभी भारतीय हर्ष पूर्वक वर्षगांठ के रूप में प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस मनाते आ रहे हैं और मूल संविधान की वर्षगांठ मनानी भी चाहिए, जबकि संशोधित संविधान किसी-किसी को अह्म घोषित करता स्पष्ट नजर आ रहा है। गाली, मारपीट, हत्या या किसी भी तरह की घटना पर दो तरह के कानून स्पष्ट नजर आ रहे हैं। जाति के आधार पर ही अलग-अलग धारायें लगाने का प्रावधान है, इतना ही नहीं जाति के आधार पर ही रोजगार तक के अवसर दिये व छीने जा रहे हैं। लोकतंत्र भी कहने को ही बचा है, क्योंकि जनप्रतिनिधि चुनने की भी आजादी छीन ली गयी है। जाति के आधार पर जनप्रतिनिधि चुनने का भी कानून बना दिया गया है, ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि जाति के आधार पर दिये जा रहे आरक्षण के चलते जिन जातियों के लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है, वह गणतंत्र दिवस क्यूं मनायें?