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Tuesday, 24 January 2012

श्रीराम को भगवान मानने वाले, उनके भक्त नहीं हो सकते

भारत के लोग दुनिया में सबसे अधिक धार्मिक हैं, तभी मनोरंजन की पूर्ति के लिए भी भारत के लोगों ने धर्म का ही सहारा लिया। तीज-त्योहार या पर्व, जो भी कहे जायें, वह सब किसी न किसी रूप में धर्म से ही जुड़े हैं। सबके साथ पौराणिक कथायें जुड़ी हुई हैं, जिसे भारत के लोग आज भी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मानते आ रहे हैं। धार्मिक चिंतन भारत के लोगों के उत्थान का कारण रहा है, पर अब पतन का कारण भी बनता जा रहा है, क्योंकि आज के लोग पूर्वजों को अवतार पुरुष मानने के कारण उनका अनुसरण नहीं करते। सामान्य तौर पर आज धारणा बनती जा रही है कि पूर्वज अद्वितीय कार्य अवतार पुरुष होने के कारण ही कर लेते थे, जबकि सच्चाई यह नहीं है, क्योंकि महान कार्यों के चलते उन लोगों को अवतार पुरुष की संज्ञा दे दी गयी है। पूर्वज भी सामान्य पुरुष ही थे, पर उनका जीवन नियम-संयम की सीमा में रहता था और संयमित जीवन जीने वाला व्यक्ति अपार या आश्चर्यचकित कर देने वाली शक्तियों का स्वामी हो ही जाता है। कुल मिला कर प्रसंग का मूलाशय यहां यही है कि महापुरुष या अवतार पुरुष कहे जाने वाले पूर्वज सामान्य मानव ही थे, पर संयमित जीवन जीने के कारण वह असाधारण मानव कहलाये जाने लगे।
ग्रंथों, शास्त्रों या इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाये, तो ऐसी असंख्य दास्तानें मिल जायेंगी, जो नियमित-संयमित जीवन जीने वाले सद्पुरुषों को असाधारण बना चुकी हैं। असाधारण कार्यों के चलते इक्ष्वाकु वंश का नाम शीर्ष पर लिया जाता है। इक्ष्वाकु वंश ने मानवता और प्रकृति के साथ संपूर्ण धरती के कल्याण के लिए विशेष कार्य किये हैं, वरना आज दुनिया ऐसी नहीं होती। धरती पर जल अव्यस्थित रूप से बहता रहता था, जो सभी के लिए हानिकारक था, कुछ भी फल-फूल नहीं पा रहा था। सगर के पुत्रों ने खुदाई कर जल को सीमाओं में बांधने का काम किया और जिस स्थान पर जल संग्रह किया गया, उसे सागर के नाम से पुकारा जाने लगा। बाद में श्राप के चलते वह सब भस्म हो गये, पर उनके बाद की पीढिय़ां भी उनकी वृहद योजना पर काम करती रहीं। योजना के अनुसार गंगा को पहाड़ों से बाहर निकाल कर सुव्यवस्थित ढंग से सागर तक पहुंचाने का काम अनवरत जारी रहा। इक्ष्वाकु वंश की यह वृहद योजना भागीरथ के कार्यकाल में पूरी हुई। भागीरथ ने गंगा योजना पर विशेष ध्यान दिया और अधिकांश समय योजना पूरी कराने में ही व्यस्त रहते थे, जिसका आशय एक पैर पर खड़े होकर तपस्या करना ही कहा जा सकता है।
मैदान के लोगों को पहाड़ों की जानकारी नहीं होती है। जल पहाड़ों से ही आता है, पर उसे किस तरह पहाड़ों से बाहर निकाल कर मैदान में लाया जाये, यह नक्शा कैलाश पर्वत पर रहने वाले भगवान शंकर ने ही सुझाया होगा, क्योंकि उन्हें पहाड़ों के विषय में व्यापक जानकारी रही होगी, इसलिए गंगा को धरती पर लाने में उनकी भी विशेष भूमिका मानी जाती है। धरती का आशय मैदानी क्षेत्र ही माना जाता है और पहाड़ों को शास्त्रों-ग्रंथों में स्वर्ग बताया गया है।
इस वंश में श्रीराम को सर्वाधिक ख्याति मिली, उन्हें विष्णु अवतार मानते हुए साक्षात भगवान ही कहा जाता है, जबकि उन्हें भगवान मान लेना, उनकी असाधारण मेहनत को कम कर देना है। उन्होंने कठिन कार्य किये, पर ऐसा कोई कार्य नहीं किया, जो मनुष्य की शक्ति से बाहर की बात हो। सतयुग जाने के बाद त्रेतायुग में राक्षसों की गतिविधियां बढऩे लगी थीं, उस समय के लोग भय के वातावरण में जीवन गुजार रहे थे, क्योंकि इक्ष्वाकु वंश ने मानव, प्रकृति या संपूर्ण धरती के विकास के लिए, जो संसाधन और शक्तियां अर्जित की थीं, उन अधिकांश संसाधनों पर राक्षसों ने कब्जा कर लिया था और लगातार कर रहे थे। श्रीराम ने प्रचंड अभ्यास और मेहनत कर राक्षसों से वह संसाधन और शक्तियां मुक्त कराईं एवं उन्हें मार कर आगे तक के लिए मनुष्यों को भयमुक्त कर दिया। भय के वातावरण में जीने वाले व्यक्ति को भय से मुक्त करने वाला व्यक्ति भगवान से कम नहीं होता, इसलिए श्रीराम को भी भगवान ही मान लिया गया, जबकि वह नियमित-संयमित जीवन जीने वाले सद्पुरुष ही थे, इसलिए उन्हें भगवान मान कर, उनके अतुलनीय कार्यों को भुला देना, मूर्खतापूर्ण सोच है और उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए, उस राह पर स्वयं चलने का प्रयास करना महान सोच। श्रीराम के चरित्र को जीवन में उतारने की जगह, उन्हें भगवान मान कर पूजने वाले, श्रीराम के भक्त नहीं हो सकते।