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Thursday, 26 January 2012

प्रतिष्ठा के लिए हुआ श्रीराम-रावण युद्ध

श्रीराम-रावण युद्ध के बारे में पूर्व विद्वान रचनकारों के विचारों पर ही गहनता से विचार किया जाये तो लगता है कि कुछ प्रचलित और विद्वान रचनाकारों ने कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का जानबूझ कर उल्लेख ही नहीं किया है या लोक कल्याण की भावना के चलते दबा दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि श्रीराम संयमित जीवन जीने वाले चरित्रवान सद्पुरुष थे, पर रावण को पूरी तरह धूर्त घोषित करना, रावण के चरित्र के साथ अन्याय सा प्रतीत होता है। लगता है कि क्षेत्रवाद या वर्गवाद के चलते विद्वान रचनाकारों ने व्यक्तिगत विचारों को ही जनमानस के सामने रख दिया है, क्योंकि कई प्रसंग ऐसे हैं, जिन्हें पढऩे के बाद रचनाकारों के मत आपस में ही नहीं मिलते। 
कुछ विद्वान रचनाकारों ने दूसरे की स्त्री का अपहृता बताते हुए रावण को धूर्त और अधर्मी सिद्ध करने का प्रयास किया है, जबकि स्वाभाविक ही है कि रावण अपनी बहन की इज्जत का बदला श्रीराम की पत्नी का अपहरण कर ही ले सकता था। वापस इसलिए नहीं दे रहा था कि श्रीराम जीवन भर उस दु:ख से दु:खी रहें। इस तर्क का आशय यह है कि रावण ने सीता का अपहरण बहन के साथ हुई घटना की प्रतिक्रिया में किया था, क्योंकि व्यक्ति का आक्रोश तभी शांत होता है, जब वह सामने वाले का अपमान कर लेता है, साथ ही आक्रोशित व्यक्ति सामने वाले का अपमान उसी रूप में और उससे बढ़ कर करने का प्रयास करता है। इस दृष्टि से देखा जाये, तो श्रीराम के लिए सीता अहपरण की घटना अपमान की बड़ी बात ही थी। कुछ रचनाकारों का तर्क है कि सुपर्णखा का चरित्र सही नहीं था, इसलिए उसके साथ घटना हुई, जिसे सीता जैसी पतिव्रता नारी के साथ कैसे जोड़ा सकता है?, यहां यह विचार करना चाहिए कि अपनी बेटी या अपनी बहन के बारे में किसी के मन में ऐसे विचार आ सकते हैं कि वह प्रचंड कामुक है और वासना शांत करने के लिए, अपरिचित पुरुष से आग्रह कर रही थी या किसी दूसरे के कहने पर भी कोई स्वीकार कर लेगा। कदापि नहीं कर सकता, इसलिए रावण के मन में भी नहीं आया होगा। दूसरा तर्क यह भी हो सकता है कि वह घटना का सच जान गया होगा, पर वह सब स्वीकार करने के बाद उसके वंश की प्रतिष्ठा ही चली जाती कि रावण की बहन ऐसी थी? हालांकि चली भी गयी, पर स्त्री का चरित्र शुरू से ही वंश, कुल और परंपराओं से जुड़ा ही रहा है, इसलिए भी उसने श्रीराम और लक्ष्मण को दोषी सिद्ध करने का दुष्प्रचार करते हुए सीता का अपहरण कर बदला लिया। यही घटनायें युद्ध का प्रमुख कारण रही हैं, जबकि कुछ प्रसिद्ध रचनाकार धर्म और अधर्म का युद्ध बता रहे हैं। वास्तव में गहन मंथन किया जाये तो श्रीराम-रावण के बीच प्रतिष्ठा का युद्ध हुआ था, क्योंकि रामायण में विभिन्न वार्तालापों में श्रीराम ने ही सीता को मुक्त कराने का आशय यश ही बताया है। सीता ने भी स्वयं की मुक्ति को यश को ही प्रमुख कारण माना है। लंका जलाने के बाद हनुमान ने सीता के सामने प्रस्ताव रखा था कि आप कंधों पर बैठ जायें, तो वह श्रीराम के पास पहुंचा देंगे। सीता ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए यही कहा कि श्रीराम, रावण पर विजय प्राप्त कर ससम्मान ले जायेंगे, तो श्रीराम का यश बढ़ेगा। इस प्रसंग से भी स्पष्ट होता है कि उस समय भी सबके मन में यही था कि यह प्रतिष्ठा का युद्ध है। इसके अलावा समस्त रामायणों से ही सिद्ध होता है कि रावण कर्मकांडी था और पूजा-अर्चना विधि-विधान पूर्वक करने का ज्ञाता था। पूजा-अर्चना की विधि भिन्न नहीं होती, वह सबके लिए एक समान ही होती है, जिससे यह भी सिद्ध होता है कि वह आर्यों की ही तरह पूजा करता था अर्थात अधर्मी नहीं था। रचनाकारों का तर्क है कि वह नीति के मार्ग पर नहीं चलता था, इसलिए अधर्मी कहा गया है, तो ऐसा उल्लेख कहीं नहीं है कि वह धर्म का पालन नहीं करता था। रावण ने धर्म के पालन में एक कदम आगे बढ़ कर काम किया था, क्योंकि रामेश्वरम की स्थापना के समय सीता के न होने के कारण श्रीराम शिवलिंग की स्थापना नहीं कर पा रहे थे, जिस पर विभीषण ने श्रीराम को यह सुझाव दिया कि रावण को आचार्य बनाने का निमंत्रण दे दिया जाये। शिव का अनन्य भक्त होने के कारण वह निमंत्रण को अस्वीकार नहीं करेगा, साथ ही यह भी कह दिया जाये कि वह अपने साथ सीता को ले आये और पूजा के बाद वापस साथ ले जाये। विभीषण के इस सुझाव पर निमंत्रण गया और रावण ने निमंत्रण स्वीकार किया, साथ ही सीता को लेकर भी आया, जबकि रामेश्वरम की स्थापना में श्रीराम की कूटनीति की झलक दिखाई देती है, क्योंकि रावण शिव का बड़ा भक्त था और वह शिव को भी प्रिय था, इसलिए लगता है कि युद्ध से पूर्व उन्होंने शिव को अपने पक्ष में किया होगा।
कुछ विद्वान रचनाकारों का तर्क है कि उसके प्रतिनिधि राक्षस ऋषि, मुनियों आदि को सताते थे और वह उनका सरंक्षक था। बात सही है, पर ऋषि, मुनि जप-तप के बल पर शक्तियां अर्जित कर इक्ष्वाकु वंश के राजाओं को देते थे, जिससे वह उन पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर पा रहा था, ऐसे में ऋषि, मुनियों को शक्ति अर्जित करने से रोकना युद्ध नीति का हिस्सा ही कहा जा सकता है, इसमें बुराई की बात तो कुछ दिख नहीं रही। यह वैसा ही है, जैसे भारत के लोग अंग्रेजों के साथ अन्य बाहरी आक्रमणकारियों या विदेशी वैज्ञानिकों को देखते हैं या अंग्रेज जिस तरह भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों या भारत के वैज्ञानिकों को देखते हैं, इसलिए श्रीराम-रावण युद्ध राज्य विस्तार की लालसा भी प्रतीत होता है, क्योंकि रावण का शासन आज के मध्य प्रदेश तक पहुंच गया था। यहां मारीच का शासन था। यज्ञ रक्षा के समय विश्वामित्र के साथ श्रीराम ने इस क्षेत्र को मुक्त कराया था। मारीच की मां और रावण की बहन ताटका को उन्होंने मार दिया था और मारीच दूर जाकर गिरा था। रावण संपूर्ण आर्यवृत्त क्षेत्र को जीतने की दिशा में काम कर रहा था, लेकिन अयोध्या के प्रतापी राजाओं के चलते उसका विजय अभियान रुका हुआ था, पर दशरथ के बूढ़े हो जाने के कारण सभी को रावण का भय सताने लगा था। उस भय का निवारण श्रीराम ने किया। उन्होंने संपूर्ण क्षेत्र को ही मुक्त नहीं कराया, बल्कि रावण को मार कर लंका तक इक्ष्वाकु वंश की पताका फहराई।   
जो भी हो, पर श्रीराम आदर्श थे, आदर्श हैं और आदर्श ही रहेंगे, क्योंकि उन्होंने लोक कल्याण के लिए घोर संकट झेले। ऐश्वर्य और वैभव को त्याग कर उदारवादी शासन की स्थापना की। रावण की अच्छाईयों को दबाने का आशय यही रहा होगा कि समाज उस राह पर न चल पड़े, क्योंकि सामान्य बुद्धि के व्यक्ति को वैभव आकर्षित करता है। रावण में सबसे बड़ा अवगुण यही दिखाई देता है कि उसने प्रचंड मेहनत से स्तब्ध कर देने वाली शक्तियां अर्जित कर लीं, लेकिन समाज का चरित्र निर्माण की ओर उसका ध्यान नहीं था। उसके राज्य लंका में प्रयोगशालायें तो जगह-जगह थीं, पर पाठशालाओं का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। गुरूकुलों का उल्लेख कहीं नहीं दिखता, जिसका आशय है कि वह संपूर्ण रूप से वैज्ञानिक हो गया था, जिससे उसके शासन क्षेत्र के संस्कार विहीन लोग पतन की ओर जा रहे थे। मांस-मदिरा आदि का सेवन करने लगे थे। इसके अलावा अपार शक्तियों का स्वामी होने के साथ विशाल भू-भाग पर शासन हो जाने के कारण रावण और उसके पुत्रों में अहंकार की भावना जागृत हो गयी थी। अहंकार भी इसलिए आया कि उसने अधिकांश शक्तियां स्वयं अर्जित कीं, पर श्रीराम की उदारता और सद्व्यवहार के चलते उन्हें अधिकांश शक्तियां ऋषि, मुनियों ने आशीर्वाद स्वरूप दे दीं, तो उनमें अहंकार क्यूं आता?
रावण का पतन संस्कार विहीन और अहंकारी होने के कारण हुआ, जबकि निलिप्त भाव से संयमित जीवन जीने के कारण श्रीराम महान हैं और सबके आदर्श होने चाहिए।