उत्तर प्रदेश के शेष विधान सभा क्षेत्रों में जैसे-जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आती जा रही है, वैसे-वैसे घोषणा पत्र के साथ दावे-वादे हवा में उड़ते जा रहे हैं। प्रत्याशी किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की दिशा में ही जुटे नजर आ रहे हैं, जिससे अन्नदाता किसान के हाथ इस बार भी कुछ नहीं लगने वाला। प्रत्याशियों की मानसिकता भांपते हुए दशकों से चली आ रही समस्यायें बरकरार रहने की ही आशंका व्यक्त की जा रही है, इसलिए किसानों को चुप्पी तोडऩी ही होगी।
आजादी के साढ़े छ: दशक गुजरने वाले हैं, पर उत्तर प्रदेश के किसानों को प्राथमिक सुविधायें भी अभी तक समुचित रूप से नहीं मिल पाई हैं। हालात वास्तव में विकट ही हैं, क्योंकि डीएपी खाद तक के लिए किसानों को डंडे खाने पड़ते हैं। नलकूपों की संख्या इतनी कम है कि आधे से अधिक किसानों की फसलें सूख जाती हैं। हर किसान की आर्थिक स्थिति निजी नलकूप लगाने की नहीं हैं, पर किसी तरह रुपया जोड़ कर कुछ किसान नलकूप लगाने का प्रयास करते भी हैं, तो बिजली विभाग के अफसरों के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं या जोड़ी हुई रकम रिश्वत में ही चली जाती है। फसल बेचने का नंबर आता है, तो मंडियों में दलालों को ही अधिक मुनाफा होता है, इसी तरह गन्ना किसान कड़ी मेहनत कर फसल तैयार करते हैं, पर बेचते समय मलाई बिचौलिये खा जाते हैं या चीनी मिल स्वामियों की नीतियां इस तरह हावी रहती हैं कि किसानों के हाथ लागात भी ठीक से नहीं आती। गरीब और मध्यम वर्गीय किसान सहकारियों समिति निर्भर रहते हैं, लेकिन समितियों में भी भ्रष्टाचारियों का ही साम्राज्य कायम है। ऋण का बीस प्रतिशत से अधिक रुपया सहकारी समितियों के संचालक ही हजम कर जाते हैं। भ्रष्टाचारियों से बच कर किसान अगर साहूकार से कर्ज लेकर काम चलायें, तो साहूकार का ब्याज इस तरह बढ़ता है कि पूरी फसल ही हजम कर जाता है, ऐसे में रोटी के साथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई या शादी आदि बेहतर ढंग से किसान कैसे कर पायें?
इसी तरह की तमाम समस्यायें किसानों के सामने मुंह खोले खड़ी नजर आ रही हैं, पर चुनाव में उनकी कोई चर्चा तक नहीं कर रहा। घोषणा पत्रों में राजनीतिक दलों ने किसानों की चर्चा तो की है, लेकिन प्रचार अभियानों में उनका कोई उल्लेख तक नहीं कर रहा। बस, सभी का एक ही उद्देश्य नजर आ रहा है कि किसी तरह चुनाव जीता जाये और जीतने के लिए सबसे अच्छा फंडा जाति, क्षेत्र, धर्मवाद के साथ शराब और पैसा ही नजर आ रहा है। हालांकि आयोग की कड़ी निगरानी के चलते यह सब इस बार खुल कर नहीं चल पा रहा है, पर अंदर ही अंदर सब हो रहा है, जिसे पकड़ पाना बेहद मुश्किल काम है, इसलिए साफ तौर पर कहा जा सकता है कि जनप्रतिनिधि चाहे कोई चुना जाये, पर किसानों का दर्द किसी को महसूस नहीं होगा, इसलिए समय रहते किसानों को ही जागना होगा। जातिवाद, क्षेत्रवाद और धर्मवाद के साथ निजी स्वार्थ भूल कर सभी को एकजुट होना होगा। प्रत्याशियों से खुल कर सवाल-जवाब करने होंगे। राजनैतिक दल या किसी संगठन का सहारा लेने की बजाये एक आवाज में अपनी बात रखनी होगी। खुल कर बात करने और प्रत्याशियों से संकल्प लेने का शुभ अवसर यही है, क्योंकि एक बार बटन दब गया, तो फिर कोई नहीं सुनेगा।
आजादी के साढ़े छ: दशक गुजरने वाले हैं, पर उत्तर प्रदेश के किसानों को प्राथमिक सुविधायें भी अभी तक समुचित रूप से नहीं मिल पाई हैं। हालात वास्तव में विकट ही हैं, क्योंकि डीएपी खाद तक के लिए किसानों को डंडे खाने पड़ते हैं। नलकूपों की संख्या इतनी कम है कि आधे से अधिक किसानों की फसलें सूख जाती हैं। हर किसान की आर्थिक स्थिति निजी नलकूप लगाने की नहीं हैं, पर किसी तरह रुपया जोड़ कर कुछ किसान नलकूप लगाने का प्रयास करते भी हैं, तो बिजली विभाग के अफसरों के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं या जोड़ी हुई रकम रिश्वत में ही चली जाती है। फसल बेचने का नंबर आता है, तो मंडियों में दलालों को ही अधिक मुनाफा होता है, इसी तरह गन्ना किसान कड़ी मेहनत कर फसल तैयार करते हैं, पर बेचते समय मलाई बिचौलिये खा जाते हैं या चीनी मिल स्वामियों की नीतियां इस तरह हावी रहती हैं कि किसानों के हाथ लागात भी ठीक से नहीं आती। गरीब और मध्यम वर्गीय किसान सहकारियों समिति निर्भर रहते हैं, लेकिन समितियों में भी भ्रष्टाचारियों का ही साम्राज्य कायम है। ऋण का बीस प्रतिशत से अधिक रुपया सहकारी समितियों के संचालक ही हजम कर जाते हैं। भ्रष्टाचारियों से बच कर किसान अगर साहूकार से कर्ज लेकर काम चलायें, तो साहूकार का ब्याज इस तरह बढ़ता है कि पूरी फसल ही हजम कर जाता है, ऐसे में रोटी के साथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई या शादी आदि बेहतर ढंग से किसान कैसे कर पायें?
इसी तरह की तमाम समस्यायें किसानों के सामने मुंह खोले खड़ी नजर आ रही हैं, पर चुनाव में उनकी कोई चर्चा तक नहीं कर रहा। घोषणा पत्रों में राजनीतिक दलों ने किसानों की चर्चा तो की है, लेकिन प्रचार अभियानों में उनका कोई उल्लेख तक नहीं कर रहा। बस, सभी का एक ही उद्देश्य नजर आ रहा है कि किसी तरह चुनाव जीता जाये और जीतने के लिए सबसे अच्छा फंडा जाति, क्षेत्र, धर्मवाद के साथ शराब और पैसा ही नजर आ रहा है। हालांकि आयोग की कड़ी निगरानी के चलते यह सब इस बार खुल कर नहीं चल पा रहा है, पर अंदर ही अंदर सब हो रहा है, जिसे पकड़ पाना बेहद मुश्किल काम है, इसलिए साफ तौर पर कहा जा सकता है कि जनप्रतिनिधि चाहे कोई चुना जाये, पर किसानों का दर्द किसी को महसूस नहीं होगा, इसलिए समय रहते किसानों को ही जागना होगा। जातिवाद, क्षेत्रवाद और धर्मवाद के साथ निजी स्वार्थ भूल कर सभी को एकजुट होना होगा। प्रत्याशियों से खुल कर सवाल-जवाब करने होंगे। राजनैतिक दल या किसी संगठन का सहारा लेने की बजाये एक आवाज में अपनी बात रखनी होगी। खुल कर बात करने और प्रत्याशियों से संकल्प लेने का शुभ अवसर यही है, क्योंकि एक बार बटन दब गया, तो फिर कोई नहीं सुनेगा।