बड़े से बड़े दुश्चरित्र इंसान की मौत पर भी लोग गमगीन हो जाया करते हैं। पिछले सभी कुकर्मों को भुला कर अधिकांश लोग उसकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करते नजर आते हैं, लेकिन आश्चर्य की ही बात कही जायेगी कि पल-पल मरती सहायक नदियों के बारे में कोई सोच तक नहीं रहा है। चुनावी माहौल के कारण फिलहाल दावों और वादों की झड़ी लगी है, पर दु:ख की ही बात कही जायेगी कि सहायक नदियों की कोई चर्चा तक नहीं कर रहा है, इससे भी बड़े दु:ख की बात यह है कि प्रत्याशियों की ही तरह आम आदमी के विचारों में भी नदियां दूर-दूर तक नहीं है।
उत्तर प्रदेश में गंगा की सहायक कही जाने वाली बहुत नदियां हैं, जो तीस, चालीस, पचास या सौ किलो मीटर का रास्ता तय कर कहीं न कहीं जाकर गंगा में ही विलीन हो जाती हैं। गंगा हर जगह नहीं है, इसलिए बाकी क्षेत्रों को यह सहायक नदियां ही उपजाऊ बनाती रही हैं। सदियों से मानव जाति के साथ संपूर्ण प्रकृति की सेवा करती आ रही हैं, लेकिन अधिकांश सहायक नदियां सूख चुकी हैं या सूखने के कगार पर हैं, पर ऐसी नदियों की कोई चर्चा तक नहीं कर रहा है। धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग करने की दृष्टि से गंगा की तो यदा-कदा चर्चा हो भी जाती है, पर गंगा की सहायक नदियों के बारे में कोई सोच तक नहीं रहा है, जबकि सहायक नदियों का अस्तित्व समाप्त होने से गंगा पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा। ऐसी ही सहायक नदियों में से एक प्रमुख नदी रही है सांपू। जनपद मुरादाबाद की सीमा को चीर कर जनपद बदायूं में प्रवेश करने वाली सोत नदी को बहुत पहले सांपू नदी के नाम से जाना जाता था। यह नदी सौ मीटर भी सीधी नहीं चलती है शायद, तभी इसका नाम सांपू पड़ा होगा, साथ ही नदी बहुत गहरी थी, कहा जाता है कि स्रोत तक गहराई होने के कारण ग्रामीण इसे सोत नदी भी कहने लगे। वर्तमान में इस नदी को अधिकांश लोग सोत नदी के नाम से ही जानते हैं, जो भी हो, इतिहास में जाने की बजाये, मूल विषय यह है कि इस नदी ने कई पीढिय़ों को जीवन दिया है। इंसानों के साथ जीव-जंतुओं को भी मां की तरह पाला है और वही मां रूपी नदी आज पल-पल मर रही है। हालांकि धरती पर सबकी आयु निश्चित है, इसलिए क्षय या मौत भी निश्चित ही है, लेकिन किसी को मरते छोड़ देना इंसानों का स्वभाव नहीं है, पर लाखों इंसानों की भीड़ होते हुए भी सोत नदी मर रही है और तड़प-तड़प कर मर रही है।
अपने काम, अपने परिवार और अपने स्वार्थ पूरा करने के बाद अगर, कुछ पल का समय मिलता हो, तो सोचो कि पल-पल मर रहीं नदियों का आपके बुजुर्गों पर कोई कर्ज है या नहीं। है, तो उसे उतारने का यह उचित समय है, नदियों की टूटती सांसों को जोड़ कर बचा सकते हो . . . और हां, नदियों को बचाने में सफल रहे, तो फिर आपकी ही सेवा करेंगी। आपके जीवन को ही खुशहाल करेंगी, आपके खेतों में सोना उगाने में फिर सहायक होंगी, किनारे पर उछल-कूद करने वाले जीव आपका ही मनोरंजन करेंगे और कल-कल कर बहता पानी आपको ही शांति देगा, इसलिए नदियों को बचाने का एक छोटा सा प्रयास तो किया ही जा सकता है।
नदी से होने वाले लाभ
नदियां यौवन काल की ही तरह पुन: प्रवाहित होने लगे, तो संपूर्ण मानव जाति का ही नहीं, बल्कि संपूर्ण प्रकृति का लाभ करेंगी। सिंचाई का मुख्य साधन बन जायेंगी, जिससे लगातार बढ़ रही तेल की कीमतों व बिजली दरों के बीच सिंचाई बेहद सस्ती हो जायेगी। इसके अलावा बरसात के असीमित पानी की निकासी करेंगी, जिससे फसलें तबाह नहीं होंगी।
उपेक्षा के चलते मर रही नदियां
शासन-प्रशासन में बैठे लोगों की उपेक्षा के चलते ही नदियां सिसक रही हैं, क्योंकि धन की वर्तमान में भी कमी नहीं थी। बस, किसी का ध्यान इस ओर नहीं था, इसलिए हालत दयनीय है। प्रदेश या जनपद के वरिष्ठ अधिकारी अभियान चला कर मनरेगा के तहत ही अपने-अपने क्षेत्रों की नदियों की खुदाई करा देते, तो बरसात के बाद नदियों में स्वत: ही पानी आ जाता, पर नदियों को लेकर कोई गंभीर ही नहीं था।
जनप्रतिनिधि भी उदासीन रहे
जनप्रतिनिधियों की उदासीनता भी प्रमुख कारण है, क्योंकि सहायक नदियां बहुत बड़े भू-भाग में नहीं है, इसलिए धन भी बहुत नहीं चाहिए था। जनप्रतिनिधि सक्रिय होते और उनकी मानसिकता सकारात्मक रही होती, तो वह अपनी निधि से ही अपने क्षेत्र की नदियों का उद्धार कर सकते थे, पर उसमें कमीशनखोरी की गुंजाइश बेहद कम थी।
अतिक्रमण पर भी नहीं है ध्यान
पल-पल मर रही सहायक नदियों की दुर्दशा पर किसी को तरस नहीं आ रहा और इससे भी बड़ी हैरत की बात यह है कि भू-माफिया और किसान नदियों की जमीन का लगातार अतिक्रमण कर रहे हैं, पर इस ओर भी किसी का ध्यान तक नहीं जा रहा है।
प्रत्याशियों से लें संकल्प
उत्तर प्रदेश के मतदाता प्रत्याशियों से यह संकल्प ले सकते हैं कि वह जीतने के बाद नदियों के हित में काम करेंगे। खुदाई करायेंगे और नदी को नहर का रूप देकर सिंचाई करने के योग्य बनायेंगे। हर विधान सभा क्षेत्र के मतदाता अपने क्षेत्र में निकल रही नदी के बारे में बात करें और चुनाव का प्रमुख मुद्दा बना दें।
निवर्तमान विधायकों से करें सवाल
निवर्तमान विधायकों से मतदाता सवाल कर सकते हैं कि उन्हें नदियों की चिंता क्यूं नहीं हुई? उन्होंने विधान सभा या विधान परिषद में पल-पल मरती नदियों का मुद्दा क्यूं नहीं उठाया? निवर्तमान विधायक अपनी गलती स्वीकार कर लें, तो भविष्य में वह नदियों के हित में काम करेंगे, ऐसा उनसे भी संकल्प लें।
उत्तर प्रदेश में गंगा की सहायक कही जाने वाली बहुत नदियां हैं, जो तीस, चालीस, पचास या सौ किलो मीटर का रास्ता तय कर कहीं न कहीं जाकर गंगा में ही विलीन हो जाती हैं। गंगा हर जगह नहीं है, इसलिए बाकी क्षेत्रों को यह सहायक नदियां ही उपजाऊ बनाती रही हैं। सदियों से मानव जाति के साथ संपूर्ण प्रकृति की सेवा करती आ रही हैं, लेकिन अधिकांश सहायक नदियां सूख चुकी हैं या सूखने के कगार पर हैं, पर ऐसी नदियों की कोई चर्चा तक नहीं कर रहा है। धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग करने की दृष्टि से गंगा की तो यदा-कदा चर्चा हो भी जाती है, पर गंगा की सहायक नदियों के बारे में कोई सोच तक नहीं रहा है, जबकि सहायक नदियों का अस्तित्व समाप्त होने से गंगा पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा। ऐसी ही सहायक नदियों में से एक प्रमुख नदी रही है सांपू। जनपद मुरादाबाद की सीमा को चीर कर जनपद बदायूं में प्रवेश करने वाली सोत नदी को बहुत पहले सांपू नदी के नाम से जाना जाता था। यह नदी सौ मीटर भी सीधी नहीं चलती है शायद, तभी इसका नाम सांपू पड़ा होगा, साथ ही नदी बहुत गहरी थी, कहा जाता है कि स्रोत तक गहराई होने के कारण ग्रामीण इसे सोत नदी भी कहने लगे। वर्तमान में इस नदी को अधिकांश लोग सोत नदी के नाम से ही जानते हैं, जो भी हो, इतिहास में जाने की बजाये, मूल विषय यह है कि इस नदी ने कई पीढिय़ों को जीवन दिया है। इंसानों के साथ जीव-जंतुओं को भी मां की तरह पाला है और वही मां रूपी नदी आज पल-पल मर रही है। हालांकि धरती पर सबकी आयु निश्चित है, इसलिए क्षय या मौत भी निश्चित ही है, लेकिन किसी को मरते छोड़ देना इंसानों का स्वभाव नहीं है, पर लाखों इंसानों की भीड़ होते हुए भी सोत नदी मर रही है और तड़प-तड़प कर मर रही है।
अपने काम, अपने परिवार और अपने स्वार्थ पूरा करने के बाद अगर, कुछ पल का समय मिलता हो, तो सोचो कि पल-पल मर रहीं नदियों का आपके बुजुर्गों पर कोई कर्ज है या नहीं। है, तो उसे उतारने का यह उचित समय है, नदियों की टूटती सांसों को जोड़ कर बचा सकते हो . . . और हां, नदियों को बचाने में सफल रहे, तो फिर आपकी ही सेवा करेंगी। आपके जीवन को ही खुशहाल करेंगी, आपके खेतों में सोना उगाने में फिर सहायक होंगी, किनारे पर उछल-कूद करने वाले जीव आपका ही मनोरंजन करेंगे और कल-कल कर बहता पानी आपको ही शांति देगा, इसलिए नदियों को बचाने का एक छोटा सा प्रयास तो किया ही जा सकता है।
नदी से होने वाले लाभ
नदियां यौवन काल की ही तरह पुन: प्रवाहित होने लगे, तो संपूर्ण मानव जाति का ही नहीं, बल्कि संपूर्ण प्रकृति का लाभ करेंगी। सिंचाई का मुख्य साधन बन जायेंगी, जिससे लगातार बढ़ रही तेल की कीमतों व बिजली दरों के बीच सिंचाई बेहद सस्ती हो जायेगी। इसके अलावा बरसात के असीमित पानी की निकासी करेंगी, जिससे फसलें तबाह नहीं होंगी।
उपेक्षा के चलते मर रही नदियां
शासन-प्रशासन में बैठे लोगों की उपेक्षा के चलते ही नदियां सिसक रही हैं, क्योंकि धन की वर्तमान में भी कमी नहीं थी। बस, किसी का ध्यान इस ओर नहीं था, इसलिए हालत दयनीय है। प्रदेश या जनपद के वरिष्ठ अधिकारी अभियान चला कर मनरेगा के तहत ही अपने-अपने क्षेत्रों की नदियों की खुदाई करा देते, तो बरसात के बाद नदियों में स्वत: ही पानी आ जाता, पर नदियों को लेकर कोई गंभीर ही नहीं था।
जनप्रतिनिधि भी उदासीन रहे
जनप्रतिनिधियों की उदासीनता भी प्रमुख कारण है, क्योंकि सहायक नदियां बहुत बड़े भू-भाग में नहीं है, इसलिए धन भी बहुत नहीं चाहिए था। जनप्रतिनिधि सक्रिय होते और उनकी मानसिकता सकारात्मक रही होती, तो वह अपनी निधि से ही अपने क्षेत्र की नदियों का उद्धार कर सकते थे, पर उसमें कमीशनखोरी की गुंजाइश बेहद कम थी।
अतिक्रमण पर भी नहीं है ध्यान
पल-पल मर रही सहायक नदियों की दुर्दशा पर किसी को तरस नहीं आ रहा और इससे भी बड़ी हैरत की बात यह है कि भू-माफिया और किसान नदियों की जमीन का लगातार अतिक्रमण कर रहे हैं, पर इस ओर भी किसी का ध्यान तक नहीं जा रहा है।
प्रत्याशियों से लें संकल्प
उत्तर प्रदेश के मतदाता प्रत्याशियों से यह संकल्प ले सकते हैं कि वह जीतने के बाद नदियों के हित में काम करेंगे। खुदाई करायेंगे और नदी को नहर का रूप देकर सिंचाई करने के योग्य बनायेंगे। हर विधान सभा क्षेत्र के मतदाता अपने क्षेत्र में निकल रही नदी के बारे में बात करें और चुनाव का प्रमुख मुद्दा बना दें।
निवर्तमान विधायकों से करें सवाल
निवर्तमान विधायकों से मतदाता सवाल कर सकते हैं कि उन्हें नदियों की चिंता क्यूं नहीं हुई? उन्होंने विधान सभा या विधान परिषद में पल-पल मरती नदियों का मुद्दा क्यूं नहीं उठाया? निवर्तमान विधायक अपनी गलती स्वीकार कर लें, तो भविष्य में वह नदियों के हित में काम करेंगे, ऐसा उनसे भी संकल्प लें।