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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Sunday, 5 February 2012

समानता के अधिकार का पक्षधर है आपका प्रत्याशी?

अधिकांश राजनैतिक दलों के शीर्ष नेता आरक्षण में आरक्षण देने की बात कर रहे हैं, पर समानता की बात कहीं सुनाई दे रही। 21वीं सदी का एक दशक गुजरने के बाद भी गांवों में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी सिर पर मैला ढोने की प्रथा बदस्तूर जारी है। हालांकि बसपा सरकार में जागरुकता अभियान चलाया गया था, पर वह जमीन पर कम, कागजों पर ही अधिक चलता दिखा। सब कुछ हवा में ही हुआ, तभी कुछ खास बदलाव नहीं दिख रहा। सवाल यह भी उठता है कि रोजी-रोटी के विकल्प के बिना प्रथा कैसे बंद हो सकती है?
उत्तर प्रदेश के अधिकांश गांवों में आज भी पुराने जमाने से चले आ रहे सर्विस शौचालय ही प्रयोग में लाये जा रहे हैं। पहले की तरह ही आज भी वाल्मीकि समाज की महिलायें या पुरुष सिर पर मैला ढो रहे हैं। बदले में प्रत्येक घर से एक रोटी, थोड़ी सब्जी या साल में कुछ किलो ग्राम अनाज मिल जाता है। कुछ परिवार पुराने कपड़े भी दे देते हैं। बस, इसके अलावा और कुछ नहीं मिलता। हां, रोटियों से परिवार के सदस्यों का पेट अवश्य भरता रहता है, लेकिन सोचने की प्रमुख बात यह है कि ऐसे परिवारों के बच्चे कभी पढ़-लिख सकते हैं, ऐसे परिवारों के बच्चों में कभी स्वाभिमान जागृत हो सकता है और सबसे बड़ी बात यह है कि एक-एक रोटी पर पलने-बढऩे वाले बच्चों के मन में स्वतंत्रता का भाव आ सकता है? नहीं न, पर माननीयों का दावा है कि उन्होंने बहुत काम किया है, जबकि सच्चाई आज भी हृदय विदारक ही नजर आ रही है। माननीयों ने काम किया होता तो आज सिर पर मैला ढोने की प्रथा पूरी तरह समाप्त हो गयी होती। अफसर अपनी नौकरी बचाने भर का ही काम नहीं करते। माननीयों को चिंता होती, तो वह अफसरों की कार्य प्रणाली पर नजर रखते। मैला ढोने वाले परिवारों को रोजगार दिलाने का प्रबंध करते। उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रेरित करते, पर इस सबकी ओर किसी का ध्यान तक नहीं गया . . . और अब कह रहे हैं कि वह ही हैं आपके शुभचिंतक, इसलिए इस बार वोट देने से पहले यह भी देखें कि आपका प्रत्याशी समानता का अधिकार दिलाने के पक्ष में है या नहीं?
उपाय
मैला ढोने वाले परिवारों के सदस्य खुशी-खुशी मैला नहीं ढो रहे हैं। उनकी आत्मा भी उन्हें झकझोरती है, पर परंपरागत काम छोडऩे का विकल्प न होने के कारण ढोये जा रहे हैं, इसलिए दोनों वक्त चूल्हा जलाने का प्रबंध करना ही होगा, वरना मानव सभ्यता के लिए कलंक बन चुकी यह परंपरा यूं ही चलती रहेगी।
सुझाव
रोजगार का प्रबंध करने के बाद गांव-गांव जागरुकता अभियान चलाने होंगे। जनप्रतिनिधियों को घर-घर जाकर बताना होगा कि उन्हें यह सब करने की अब कोई आवश्यकता नहीं है।
शिक्षा
रोजगार देने के साथ जागरुकता अभियान चलाना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है शिक्षा का प्रबंध करना। शिक्षा के अभाव में ऐसे परिवारों के बच्चों में आत्म विश्वास जागृत ही नहीं हो पाता, तभी परंपरा के आधार पर वह भी मैला ढोने के कार्य में लग जाते हैं।
सम्मान
जाति और काम के चलते ऐसे परिवारों के प्रति समाज में हीन भावना आ गयी है, छुआछूत समाप्त नहीं हो पा रही, इसलिए जनप्रतिनिधियों को ऐसे परिवारों के घर जाकर सामाजिक रिश्ता कायम करना चाहिए। उनके घर जाकर चाय, पानी ग्रहण करना चाहिए, ताकि मैला ढोने का काम करने वाले परिवारों में साहस बढ़ सके। सम्मान मिलने के बाद ऐसे परिवारों के सदस्यों में आत्म विश्वास की स्वत: बृद्धि जायेगी।
भ्रष्टाचार
शासन द्वारा संचालित योजनाओं का लाभ भी ऐसे परिवारों को नहीं मिल पाता, जिससे ऐसे परिवारों की दशा नहीं बदल पा रही है। सब कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है, जिस पर जनप्रतिनिधि ही अंकुश लगा सकते हैं, लेकिन इसके लिए जनप्रतिनिधि का ईमानदार होना बेहद आवश्यक है।