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Saturday 11 February 2012

ऐसी होली न जलाई जाये तो अच्छा

धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक परंपराओं को याद दिलाने वाले त्योहार होली को भी पाश्चात्य संस्कृति का ग्रहण लगता जा रहा है। ईश्वर और प्रकृति की सत्ता का अहसास कराने वाले इस त्योहार को मनाने की जगह सेलिबे्रट करने की परंपरा बढ़ती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरायें फिर भी किसी हद तक अभी दिख रही हैं, पर खुद को विकसित कहने वाला शहरी तबका परंपराओं से लगातार दूर भागता नजर आ रहा है। यही वजह है कि परंपराओं और परंपरागत त्योहारों से विमुख होते जा रहे पढ़े-लिखे शहरी तबके की ईश्वर और प्रकृति के साथ बेरुखी भी बढ़ती जा रही है।
बसंत ऋतु के फाल्गुन माह में मनाये जाने वाले इस त्योहार को लेकर लोगों के अलग-अलग और अपने-अपने तर्क हैं। सबसे चर्चित और पौराणिक मान्यता यही है कि दुर्दांत राजा हिरण्याकश्यप ने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया, पर उसके बेटे प्रहलाद ने उसे भगवान मानने से मना कर दिया, इसलिए हिरण्याकश्यप ने अपने ही पुत्र प्रहलाद को कई तरह की यातनायें ही नहीं दीं, बल्कि अपनी बहन होलिका की गोद में प्रहलाद को बैठा कर आग के हवाले कर दिया। होलिका को भगवान ने आग से न जलने का वरदान दे रखा था, फिर भी आग में होलिका जल गयी और भगवान विष्णु का भक्त प्रहलाद सकुशल आग से बाहर निकल आया। ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने की खुशी में होली का त्योहार तभी से मनाये जाने की परंपरा मानी जाती है। इससे यह भी संदेश मिलता है कि दुर्गुणी के पास चाहे जैसी शक्ति हो, पर वह शक्ति उसके किसी काम नहीं आती। सद्कार्य करने वाले का आत्मबल बेहद मजबूत होता है, जिसके सामने दुनिया की कोई भी शक्ति नहीं टिक सकती। होलिका और प्रहलाद के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। इसके अलावा होली मनाने का दूसरा प्रमुख कारण यह भी रहा होगा कि ठंड से राहत मिलने के साथ ही बसंत ऋतु शुरु हो जाता है, जो प्राकृतिक बदलाव लेकर आता है। चारों ओर हरियाली छा जाती है। फसलें पकने के कगार पर पहुंच चुकी होती हैं। सभी के घर अन्न, धन के साथ सुख-समृद्धि आने वाली होती है, जिसकी खुशी में होली मनाने की परंपरा पड़ी होगी, साथ ही यह भी हो सकता है कि जगह-जगह सामुहिक रूप से आग जला कर जल्दी मौसम परिवर्तित कर फसलों के अनुकूल वातावरण बनाया जाता होगा, ताकि फसलें शीघ्र पक जायें। इसके अलावा अग्रि को देवता भी माना जाता है, इसलिए पूजा-अर्चना कर अग्रि देवता को खुश किया जाता होगा, ताकि वह फसलों को सुरक्षित रखें, क्योंकि इसी ऋतु में ही खेत में रखी फसलों में आग लगने की आशंका अधिक रहती है। उस समय इस मौसम में मुख्य रूप से जौ और गन्ने की फसल हुआ करती थी। सामान्य परिवारों में जौ के आटे से बनी रोटी ही खाई जाती थी। वैसे जौ की रोटी गेहूं के मुकाबले ज्यादा शक्तिबर्धक और गुणकारी होती है, पर बाद में विदेशों से गेहूं का बीज आ गया तो जौ की रोटी लोगों ने धीरे-धीरे छोड़ दी। गर्मी के मौसम में सत्तू खाने की परंपरा बहुत पुरानी है। सत्तू बगैर गुण के बन ही नहीं सकते। गर्मी व बीमारी से सत्तू व गुण ही रक्षा करते थे। इसके अलावा खाने के साथ, मट्ठे के साथ, दूध-दही के साथ या फिर किसी भी तरह के पकवान के साथ गुण की मुख्य भूमिका रहती थी। शायद, इसी लिए होली में जौ व गन्ने से पूजन करने की परंपरा पड़ी होगी। भूमि और अन्न के बाद मुख्य रूप से लोग अपने जानवरों को भी धन की तरह ही समझते थे। धन ही नहीं, बल्कि गाय को तो देवताओं की तरह ही पूजने की परंपरा रही है। आध्यात्मिक कारणों को अगर नजर अंदाज कर दिया जाये तो भी गाय दूध, दही और घी के अलावा कृषि कार्य के लिए बछड़े भी देती थी। गाय के मूत्र व गोबर को भी अमृत के समान माना जाता है, जो विभिन्न असाध्य रोगों में प्रयोग किया जाता है। गाय के गोबर से बने उपलों में भी ऐसी कोई शक्ति होती होगी, जो विषाणुओं को मार कर रोगों से रक्षा करती होगी। यह चिकित्सीय आधार हो सकता है कि ठंड के मौसम में पैदा हुए विषाणुओं को आग जला कर मारने की परंपरा के तहत ही उपलों से बनी होली जलाने की परंपरा पड़ी होगी, ताकि बदले वातावरण में विषाणु पूरी तरह खत्म हो जायें।
खैर, जो भी कारण रहे हों। पर सबसे प्रमुख कारण यही है कि होली धर्म से जुड़ा आस्था का त्योहार है, जिसका अपना महत्व है। परंपरा है कि होली से पहले आने वाली पूर्णिमा के दिन गांव या मोहल्ले में एक नियत स्थान पर पुजारी द्वारा पूजन करने के बाद होली रखी जाती है। इस स्थान पर हर घर से पांच-पांच उपले रखे जाते हैं। घर की महिलायें व बच्चे जंगल से फूल चुन कर लाते हैं। घर में फूलों की रंगोली बना कर फाल्गुन माह में गाये जाने वाले विशेष गीत-मल्हार ढोलक की थाप कर गाये जाते हैं। यह दौर पूरे एक माह चलता है। इसके बाद फाल्गुन की पूर्णिमा को पुजारी होली में आग लगाता है। पूरे गांव के लोग उस समय मौजूद रह कर पूजन करते हैं। इसके बाद एक-दूसरे को बधाई देने का क्रम शुरु होता है। शायद, प्रहलाद के बचने की खुशी में ही यह सब किया जाता है और एक-दूसरे को रंग-गुलाल आदि लगा कर शाम तक खुशियां मनायी जाती हैं। एक बात और इस दिन घरों में चूल्हा होली से लायी आग से ही जलाया जाता है। पकवान बनाये जाते हैं, जिनका पूरा परिवार हंसी-खुशी स्वाद चखता है। होली बाकी त्योहारों से इस लिए भी अलग माना जाता है कि जिन परिवारों में किसी सदस्य की मौत हो चुकी होती है, उन परिवारों में होली के बाद पुन: खुशियां मनानी शुरु हो जाती हैं, इसलिए होली सुख, समृद्धि के साथ बदलाव या परिवर्तन का प्रतीक है। होली सिखाती है कि जीवन के गमों को भूल कर जीवन की नयी शुरुआत करो, जो बीत गया है, जो घट गया है, उसी के सोच-विचार में समय मत गंवाओ, पर होली का अब यह सब मतलब कहां रहा है?
अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी जानवर पालने की परंपरा खत्म हो चली है। विशेष तौर पर गाय तो दिखाई ही नहीं देती, क्योंकि कृषि कार्यों में बैलों की जरुरत पड़ती थी, तो गाय से बछड़े मिलते थे और दूध की पूर्ति तो करती ही थी, लेकिन बछड़ों का काम अब मशीनों से होता है तो दूध के लिए विदेश से आयी भैंस सब को बेहद रास आने लगी है। उपले थोपने का तो सवाल ही नहीं उठता। गांवों में तो परंपरा बनाये रखने के लिए होली के स्थान पर कुछ उपले दिख भी जाते हैं, पर शहरों में उपले विहीन होली एक कूढ़े का ढेर नजर आती है। लगता है मानो, पूरे मोहल्ले की गंदगी इकठठी कर दी हो और सफाई कर्मी उठाना भूल गया हो। शहरों में होली के स्थान का प्रयोग एक माह तक कूढ़ा डालने के रूप में ही होता है। होली के स्थान पर कूढ़े की बंद पड़ीं थैलियां यही दर्शाती हैं। छूआछूत के चलते दलित इन सभी रस्मों में पहले से ही शामिल नहीं किये जाते हैं। वह अपनी होली अलग जलाते हैं या फिर जलाते ही नहीं हैं। सवर्णों में या मध्यम वर्गीय परिवारों में अब चूल्हे की जगह एलपीजी गैस का प्रयोग होने लगा है, जिससे होली से आग लाने या फिर उसका श्रद्धा पूर्वक प्रयोग करने का सवाल ही नहीं उठता। रंग या गुलाल के लिए टेसू के फूलों का प्रयोग विशेष तौर पर किया जाता था, जिसे लगाने से शरीर महक उठता था, पर अब सिंथेटिक कलर आ गये हैं, जो शरीर को हानि ही पहुंचाते हैं। रही बात फाल्गुनी गीतों-मल्हारों की तो उन पर पूरी तरह फिल्मी गानों का असर है। होली मनाते आ रहे हैं, इस लिए ही सेलिबे्रट कर रहे हैं, पर नयी पीढ़ी को नहीं पता कि क्यों मना रहे हैं?, तभी आस्था और श्रद्धा के साथ परंपरा गायब हो चली है, वरना पहले तो लोग पूरे महीने होली की तैयारी करते थे। धनाढ्य वर्ग के लोग तो बरसाने व नंदगांव की होली देखने विशेष तौर पर जाते थे, लेकिन मशीनी युग में आस्था, श्रद्धा, प्रेम और हर्ष के मायने ही बदल गये हैं। वे दिन अब शायद ही लौटें?