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Wednesday 14 March 2012

आंकड़े नहीं भर सकते भूखे का पेट

बांटने वाले के पास अपार धन हो, तो भी वह प्रत्येक व्यक्ति को खुश नहीं कर सकता, यह बात सही है, पर भारत के वित्त मंत्री सबकी इच्छाओं की पूर्ति करने के प्रयास में सभी को भूखा छोड़ देते हैं, जबकि सभी को तड़पाने की जगह एक-एक कर सभी को संतृप्त किया जा सकता है, लेकिन अब तक के बजट सत्रों को देखते हुए वित्त मंत्री की सोच इस दिशा में दूर तक नजऱ नहीं आती, तभी हालात लगातार बद्तर होते चले जा रहे हैं। सरकारी नीतियों का दुष्परिणाम ही कहा जायेगा कि दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जो आगे बढ़ रहा है, पर भारत के किसान लगातार पीछे जा रहे हैं। आश्चर्य के साथ दु:ख की बात ही कही जायेगी कि गुजऱे दशक में करीब दो लाख किसान आत्म हत्या कर चुके हैं, ऐसे में कंप्यूटर, कार, मोबाइल, एसी या हवाई यात्रा के बारे में बात भी कैसे की जा सकती है?
वित्त मंत्री को सबसे पहले देश के अन्नदाता को संतृप्त करना ही होगा, क्योंकि किसान देश का प्राण हैं और जिस देश के प्राण ही कमजोर होंगे, वह देश कभी भी सशक्त नहीं हो सकता। वित्त मंत्री को एक बार बजट पेश करने से पहले चीन की आर्थिक नीतियों का गहनता से अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि चीन एक वित्तीय वर्ष में अपने एक क्षेत्र को संतृप्त कर लेता है, तभी वह हर क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहा है। उसके किसान मानसून के सहारे नहीं रहते। चीन के किसानों को खाद के बदले लाठियां नहीं मिलतीं। डीज़ल खरीदने के लिए वह ज़मीन गिरवी नहीं रखते, पर बजट का एक बड़ा भाग कृषि क्षेत्र पर खर्च करने के बाद भी भारत के किसानों की हालत दयनीय ही बनी हुई है, जो सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का दुष्परिणाम ही कही जायेगी। इसके अलावा देश के मूल उत्पादक किसान हैं, वहीं मूल ग्राहक भी किसान ही हैं। किसान अगर बेहतर उत्पादन कर पायेगा, तो जाहिर है कि उसकी जेब भी भरी होगी और किसान की जेब भरी होगी, तो बाज़ार भी खुशहाल दिखेगा। किसान दिल खोल कर खर्च करेगा, तो व्यापारी के साथ हर किसी की जेब में पैसा पहुंचेगा। सबकी खुशी का आधार किसान ही है, इसीलिए वित्त मंत्री से इस बार प्रबल आशा यही है कि वह देश के किसान को पूर्ण रूप से संतृप्त कर देंगे। वित्त मंत्री ने अगर किसानों को खुश कर दिया, तो आने वाले समय में भूख से एक भी मौत नहीं होगी। इसके अलावा देश के सामने दूसरी सबसे बड़ी समस्या सीमा की सुरक्षा है, क्योंकि पिछले कुछ समय से पड़ोसी देश चीन की गतिविधियां सीमा पर लगातार बढ़ रही हैं, जो संदिग्ध लग रही हैं और सरकार को संदिग्ध मान कर ही चलना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश के आसपास चीन जिस प्रकार अपनी सेना का जमावड़ा कर रहा है, उससे उसके इरादे ठीक भी नहीं लग रहे हैं, साथ ही एक युद्ध भारत उसके साथ पहले लड़ ही चुका है, ऐसे में भारत को पाकिस्तान से अधिक चीन से सतर्क रहने की आवश्यकता है, क्योंकि पाकिस्तान सीधी लड़ाई में चाह कर भी भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पिछले साल का भारत और चीन का रक्षा बजट देखें, तो दोनों देशों के बजट में बहुत बड़ा अंतर है। जहां चीन ने पिछले साल रक्षा क्षेत्र के लिए तीन लाख चौबीस हजार तेरह करोड़ रुपये जारी किये थे, वहीं भारत का रक्षा बजट मात्र एक लाख सैंतालीस हजार तीन सौ चौवालिस करोड़ रुपये ही रहा, वह भी ठीक से खर्च नहीं हो पाया।
शिक्षा की दृष्टि से भारत का शैक्षिक स्तर विदेशी स्तर का नहीं हो पा रहा है। ब्रिटेन के पिछले साल के बजट से भारत की तुलना की जाये, तो पिछले साल भारत ने शिक्षा क्षेत्र के लिए इकत्तीस हजार छत्तीस करोड़ रुपये जारी किये, वहीं ब्रिटेन ने इस मद में पांच लाख बासठ हजार सात सौ करोड़ रुपये जारी किये।
आजादी के पैंसठ साल बीत जाने के बाद भी भारत के आम लोगों का सामाजिक स्तर दयनीय ही है, पर सामाजिक स्तर सुधारने की दिशा में भी सरकार खास गंभीर नजऱ नहीं आती। देश का धनाढ्य वर्ग अमेरिकन शैली में नजर आ रहा है, जबकि आम आदमी की हालत देख कर लगता है कि यह आज़ाद देश के नागरिक ही नहीं हैं। अमेरिका ने अपने 31 करोड़ लोगों का सामाजिक स्तर सुधारने या बनाये रखने के लिए पिछले साल बत्तीस लाख तीन हजार दो सौ पचपन करोड़ रुपये खर्च किये, वहीं भारत ने अपने सवा अरब लोगों के समाजिक स्तर के लिए पिछले साल एक लाख सैंतीस हजार छ: सौ चौहत्तर करोड़ रुपये रखे, जो हास्यास्पद ही कहा जा सकता है। वित्त मंत्री को पहले देश की मूलभूत आवश्यकताओं को समझना चाहिये और उसके बाद प्राथमिकता के आधार पर ज़रूरतमंदों को धन देना चाहिये, वरना देश के आम आदमी की जैसी हालत पैंसठ साल के बाद है, वैसी ही हालत छियासठ, सड़सठ और अड़सठ साल के बाद भी रहेगी। कागज़ी आंकड़बाज़ी से कुछ नहीं बदलेगा, क्योंकि आंकड़े कागज़ का पेट तो भर सकते हैं, पर भूखे व्यक्ति के चेहरे पर खुशी नहीं ला सकते।