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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Sunday 25 March 2012

चमत्कारों के देश में एक और चमत्कार

जिंदगी से किसी तरह जूझते भूखे-नंगे व्यक्ति से कह दिया जाये कि आपके तो मज़े आ रहे हैं, तो ऐसे व्यक्ति के कान में पहुंचते ही यह शब्द गर्म तेल जैसा ही काम करेंगे। कल्पना से परे ऐसे मजाक पर भुक्त भोगी आक्रोश व्यक्त करने की बजाये अपना सिर पकड़ कर ही बैठ जायेगा, उसका चीख कर रोने का मन करेगा, उसे सामान्य होने में काफी देर लगेगी। गरीबी रेखा का मानक तय करते हुए यूपीए सरकार ने आम आदमी के साथ कुछ ऐसा ही मजाक किया और अब गुदगुदी भी कर रही है कि गरीबों की संख्या और गरीबी का स्तर घट गया, जबकि यह तय करने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि समाज के एक बड़े वर्ग की आर्थिक स्थिति आज भी दयनीय है।
चमत्कारों के लिए भारत विश्वभर में जाना जाता है। गणेश की मूर्ति भले ही भ्रांति के चलते दूध पीती नजऱ आई, लेकिन यहां तो सरकार भी चमत्कार करती नजऱ आ रही है। चमत्कार इसलिए कहा जा रहा है कि वास्तविकता आंकड़ों के ठीक विपरीत है, पर आंकड़ों की ही बात की जाये, तो सरकार में बैठे लोगों को अच्छी तरह पता है कि अब तक वह आम आदमी को मूलभूत सुविधायें तक नहीं दे पाये हैं। खाद, बीज, दवा, पेयजल, सिंचाई की व्यवस्था, बिजली, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के साथ मनोरंजन के साधन आम आदमी को समान रूप से मुहैया नहीं करा पाये हैं। आम आदमी की यह स्थिति दस्तावेज़ों में भी दजऱ् है और दस्तावेज़ सरकार के पास सुरक्षित हैं, फिर भी सरकार में बैठे लोग दलील दे रहे हैं कि हालात बदल गये हैं और आम आदमी अब पहले से अधिक संपन्न हो गया है या उसके आमदनी के साधन बढ़ गये हैं। सरकार में बैठे लोगों की इस सोच पर भ्रष्टाचार और महंगाई के साथ बेरोजगारी से जूझ रहे लोग झुंझलाते नजर आ रहे हैं। गरीबी मिटाने की दिशा में काम करने की बजाय सरकार ने ऐसी नीति बनाना बेहतर समझा, जिससे सिर्फ कागजों में गरीबों की संख्या कम हो जाये। सरकार के लिए ऐसा करना आसान भी था, सो कर लिया। गरीबी रेखा का मानक तय करने वाले मापदंडों पर नजर डालें, तो मानक दूर तक यह सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं कि संबंधित परिवार गरीब है या नहीं। बावजूद इसके सरकार ने पहले 32 रुपये की मनगढ़ंत लाइन खींची, जिसे घटा कर अब 29 रुपये कर दिया गया है, मतलब 29 रुपये प्रतिदिन पैदा करने वाला परिवार बीपीएल पार कर गया है, पर सवाल यह है कि महंगाई के इस दौर में 29 रुपये प्रति दिन की आय वाला परिवार जीवन यापन कैसे कर सकता है?
मात्र चार सदस्यों वाले परिवार की ही बात की जाये, तो नौ सौ या हजार रुपये प्रति माह की आमदनी से चाय पीकर गुजारा कर पाना भी असंभव ही नजऱ आता है। 29 रुपये प्रतिदिन की आय वाला परिवार सिर्फ घर में तेल से मिट्टी का दीपक ही जला सकता है, ऐसे में आटा, दाल, सब्जी, बच्चों की पढ़ाई, बीमारी पर खर्च करने को धन कहां से लायेगा? गरीबी की रेखा खींचते समय जिम्मेदार लोगों को ऐसे प्रश्रों का जवाब भी साथ में देना चाहिए था, पर सरकार में बैठे लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसे प्रश्रों का कोई जवाब ही नहीं है, फिर भी वास्तविकता से हट कर नियम निर्धारित कर रहे हैं, जिससे रोटी की जंग लडऩे वाले व्यक्ति को दु:ख होगा ही।
सरकारी मापदंड ही बताते हैं कि जो परिवार रोटी को मोहताज न हों, स्वच्छ पानी पी रहे हों, बच्चे सामान्य शिक्षा ग्रहण कर रहे हों, सामान्य बीमारियों का इलाज कराने में सक्षम हों और पक्की दीवारों पर पड़ी पक्की छत के नीचे रहते हुए तन ढका हो, तो ऐसे परिवार सामान्य परिवारों की श्रेणी में ही गिने जायेंगे, पर सरकार में बैठे लोगों को अच्छी तरह पता है कि अभी तक वह न्याय पंचायत स्तर पर भी प्राथमिक विद्यालय एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक नहीं खोल पाये हैं और जहां खोल दिये गये हैं, वहां स्टाफ और दवा के साथ पर्याप्त साधन तक नहीं हैं। पढऩे-खेलने की उम्र में बचपन कूड़े के ढेर में जिंदगी खोजता आज भी देखा जा सकता है। आज भी गर्भवती महिलायें प्रसव के दौरान तड़प कर दम तोड़ती देखी जा सकती हैं। कुपोषण के चलते बच्चे अकाल मौत का लगातार शिकार हो रहे हैं। कजऱ् के बोझ से दबे किसान आज भी आत्महत्या कर सूदखोर से निजात पाते देखे जा रहे हैं, फिर भी सरकार को अधिकांश परिवार सामान्य ही नजर आ रहे हैं। माना समय के साथ लोगों का रहन-सहन, खान-पान बदला है, पर किसी के पास मोबाइल होना अमीरी का प्रमाण पत्र भी नहीं है, क्योंकि चार-पांच सदस्यों वाले परिवार में पचास रुपये प्रति दिन की सिर्फ सब्जी ही चाहिए, जो रोटी से खाई जायेगी। ऐसे परिवारों के लोग विटामिन्स के बारे में न जानते हैं और न ही जान कर वैसा खाने की उनकी हैसियत है, पर सरकार को लगता है कि ऐसे लोग सामान्य श्रेणी के ही परिवार हैं और उन्हें किसी तरह की सरकारी मदद नहीं मिलनी चाहिए। किसी तरह जिंदगी से जूझ रहे लोगों के प्रति सरकार में बैठे लोगों की यह सोच मजाक नहीं, तो और क्या है?, हालांकि मदद के तौर पर सरकार की जो योजनायें या कार्यक्रम चल रहे हैं, उनका लाभ भी पात्रों को नहीं मिल पाता है, इसलिए उनका नाम अगर पात्रता की श्रेणी से निकल भी जाये, तो उन्हें खास फर्क नहीं पडऩे वाला।
भाग्य विधाताओं को अगर आम आदमी के दर्द का अहसास भी होता, तो परिवर्तन के लिए 64 साल का समय कम नहीं होता, इसीलिए नाकाम भाग्य विधाता जमीन पर परिवर्तन करने की बजाये कागजों में आंकड़ेबाजी के फंडे से आम आदमी को अमीर घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं। इससे भी बड़े दु:ख की बात यह है कि भाग्य विधाताओं की सोच अगर ऐसी ही रही, तो आने वाले 64 सालों में भी कुछ नहीं बदलने वाला।