My photo
मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Wednesday 29 August 2012

मैं ठग हूँ, मुझे फांसी दे दी जाये

पिछली बार लिखते समय यह बात अधूरी रह गई की मधु की मेरी जिन्दगी में क्या अहमियत है? माता-पिता को मैं साक्षात देवता मानता हूँ, उनसे अधिक प्रमुख और प्रिय मेरे लिए कोई हो ही नहीं सकता, इसके बावजूद मधु ने उनके बराबर का अपना स्थान मेरी जिन्दगी में बना लिया, वह मुझसे एक वर्ष छोटी है, पर कभी नहीं लगा की वह मुझसे छोटी है, अट्ठारह वर्ष तक का लालन-पालन मम्मी-पापा ने किया, तो बाद में वह सब मधु ने ही किया है, उसने मुझे माँ की तरह पाला है, परेशान होने पर पिता की तरह साहस दिया है और मस्ती में मूर्ख बन कर मुझे बच्चे की तरह हंसाया है, शादी के कुछ दिन बाद ही हम दोनों ससुराल में थे, मुझे बुखार आ गया, रात में न जाने किस समय मैंने बिस्तर पर ही पेशाब कर दी, उसे लगा की पति का अपमान होगा, सो पानी से भरा पूरा जग ही उड़ेल दिया, सत्रह साल की ऎसी ही छोटी-छोटी घटनाएं असंख्य हैं, जिनका उल्लेख कर पाना असंभव ही है, वह ही है, जो मुझे पूरी तरह जानती=समझती है, मेरे चेहरे के भाव से ही समझ जाती है की इनके साथ कैसा व्यवहार करना है, मैं उसे आज भी प्रेमिका वाला प्रेम नहीं करता हूँ, लेकिन अन्दर कुछ है, जो उसके चेहरे की मायूसी बर्दास्त नहीं करने देता, उसका सुख सिर्फ यही है की मैं खुश हूँ, ऐसे में मैं इतना स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ की उसको भूल जाऊं, तन्हा छोड़ दूं, यह सब तो बहुत बड़ी बात है, मेरे कुछ भी करने से उसे दुःख होगा, वो सब मैं कभी भी नहीं कर सकता, अब आप सोच रहे होंगे की इससे ज्यादा क्या करोगे? मैं और चिदार्पिता कब व कैसे मिले?, यह स्टोरी अगली किश्त में लिखूंगा, फिलहाल यहाँ की कड़ी जोड़े देता हूँ, मेरे और चिदार्पिता के बीच संबंध की गहराई पाताल तक पहुँचने से पहले ही मैंने मधु को बता दिया की एक सभ्य, शालीन, भोली, पढी-लिखी लड़की एक धूर्त स्वामी के चंगुल में फंस गई है, उसे वहां से मुक्त कराना है, पूरी कहानी सुनने के बाद वो मुझ से भी अधिक गंभीर हो गई, चिदर्पिता से संबंध का दायरा बड़ा तो फिर चिदर्पिता के कहने पर मैंने मधु से फिर पूंछा की शादी कर लूं, उसका चेहरा मैं निहार रहा था, उसके चेहरे पर एक भी विपरीत भाव नहीं आया, बोली- मेरे हित की रक्षा करने को आप हो तो, मुझे क्या फर्क पड़ता है और यह तो पुन्य का काम है, मैं इसके आड़े क्यूं आउंगी, लेकिन मेरी बात हो जाए और हम दोनों ही एक-दूसरे को प्रेम करने लगें तो ज्यादा अच्छा रहेगा, मैंने उसी दिन दोनों की बात करा दी, दोनों ही कुछ देर बाद एक-दूसरे को छोटी-बड़ी बहन कहने लगीं, मुझे यह विश्वास था की मधु जैसी सामान्य नारी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा, तो चिदर्पिता तो आध्यात्मिक गतिविधियों में रहने वाली योग्य महिला है, उसे क्यूं पडेगा?, यही सोच कर मैंने शादी करने का निर्णय खुशी-खुशी मान लिया, लेकिन पहले ही दिन चिदर्पिता ने उसका अपमान शुरू कर दिया, इसके बीच की दास्ताँ अगली किश्त में पढने को मिलेगी, हालात इतने खराब हो गए की मैं और मधु उसके सामने भी बात तक नहीं कर सकते थे, मधु की परेशानी मुझ से देखी नहीं जानी थी, सो मैंने बाहर आकर मधु को फोन किया की तुम अलग रहने का इंतजाम कर लो, शाम को घर पर दो गाड़ी पहुँच जायेंगी, अपना सामान भर कर पुराने मकान में ही सिफ्ट कर लेना, मैं शाम तक घर नहीं गया, क्योंकि अब तक मैं जान ही गया था की नाटक होगा ही, गाड़ियाँ पहुंची, मधु ने अपना सामान रखना शुरू किया, तभी चिदर्पिता ने उसे धकियाना शुरू कर दिया, वो बेचारी यह सब देख कर स्तब्ध थी, यह कह रही थी की मेरे पति का सामान है, तुझे अलग रहना है, तो भाग जा, बात घर के बाहर कालोनी तक आ गई, जीवन में पहली वार मेरे परिवार का तमाशा बन रहा था और मैं नपुंसकों की तरह दोनों का ही फोन रिसीव नहीं कर रहा था, मैंने साले को फोन किया की तू जाकर ड्रामा बंद करा, वो पहुँच गया, उसने चिदर्पिता से कहा की हमारी दीदी को आप सम्मान देतीं तो जीजाजी के कारण हम आपको जीवन भर दीदी जैसा ही सम्मान देते, पर अब आपने हद पार कर दी है, इसलिए शांत बैठ जाओ, चिदर्पिता की समझ में कुछ आ गया और दरवाजे से हट गई, मधु एक सप्ताह के अन्दर ही अलग हो गई, मैंने मधु को फोन किया तो वो रोने के अलावा कुछ नहीं कह पाई, मैंने उससे इतने पर भी यही कहा की यह जंगली गाय है, ममत्व क्या होता है, इसे नहीं पता, कुछ दिनों में यह भी परिवार, रिश्ते औए समाज की अहमियत समझना शुरू कर देगी, सब ठीक हो जाएगा, इतनी सांत्वना देकर और मानसिक रूप से एक दम तैयार होकर मैं चिदर्पिता के पास आ गया, स्वयं ही महसूस कर सकते हैं की क्या हुआ होगा?, मैंने इसे भी बच्चे की तरह ही समझा कर किसी तरह शांत किया, और देर रात खाना खाने होटल चले गये, दो-तीन दिन बाद ही करवा चौथ थी, जो इसी के साथ मनाई, मधु दूर चली गई, इसे तो भी चैन नहीं पड़ा, क्योंकि अब इसे यह पता नहीं चल पा रहा था की मैं मधु के पास कब जाता हूँ या जाता हूँ या नहीं?, जबकि मैं इसे सच ही बताता था, चूँकि शंकालु स्वभाव की है, सो शक बराबर रहता था, एक दिन बोली-मधु का दूर जाना और बात बंद हो जाना, मुझे परेशान कर रहा है, मुझे उसके पास ले चलो, कूटनीति है, यह बाद में समझ आया, तब मैं उसे खुशी-खुशी उसे मधु के पास ले आया, छोड़ के शहर में चला गया, उस दिन से दोनों की बात शुरू हो गई, निकलते-बैठते किसी समय मैं अक्सर मधु का हाल ले जाता था, चूंकि भाई साथ था, इसलिए वैसी कोई चिंता नहीं थी, सिर्फ अपना चेहरा दिखाने की औपचारिकता ही पूरी करनी होती थी, इस औपचारिकता पर भी उसे आपत्ति थी, मुझसे बोली- मधु के पास जाने से पहले और आने के बाद वहीं से फोन किया करो, घर आकर पूरी बात बताया करो की क्या-क्या किया? मैंने कहा की तुम्हारी यह हरकत नीच और गंवार टाइप की महिलाओं जैसी है, तुम्हें शर्म नहीं आ रही, जबकि मधु कहती की तुम्हारे घर में झगडा होता हो, तो बिलकुल मत आया करो, मैं समझ लुंगी सत्रह साल का ही साथ था, अब उनके साथ ही खुशी-खुशी रहो, मैं कहता की न अब वो बदल गई, पहले की तरह नहीं रही है, हालात सुधरने की आस में जीये जा रहा था, लेकिन एक दिन चिदर्पिता ने पूंछा आज मधु के पास गए थे, मैंने बोल दिया, नहीं, इससे पहले वो मधु से फोन पर पूंछ चुकी थी, इसी बात पर ड्रामा शुरू हुआ और जमकर दो दिन तक चलता ही रहा, चिदर्पिता के अपने परिवार से बिलकुल भी संबंध नहीं थे, धूर्त पहले ही तुडवा चुका था, मैंने ही एक दिन लंबा प्रवचन दिया की अपने, अपने ही होते हैं, उनसे फिर संबंध बनाओ, डर के चलते यह बात करने को तैयार नहीं थी, लेकिन मैंने जोर देकर बात शुरू करा दी, दो-चार ताने मिले, डांट पड़ी और बात अच्छे से होने लगी, सो उन्हें ही फोन कर के बुला लिया, इसके भैया-भाभी घर आ गये, मुझे तब पता चला, इसने उन्हें क्या बताया था, मुझे नहीं पता, वह आते ही बोले, उठो, चलो, मेरी समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था, मैंने साथ लग कर पैकिंग कराई और यह चली गई, जाते समय बोल गई की रहना अब खुश, तब समझ आया की इसी ने इनको बुलाया था और चली गई, मेरा हाल खराब हो गया, दो लोगों के बीच की बात किसी से शेयर भी नहीं कर सकता था, दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, अंत में मैंने मधु को ही फोन किया की ऐसे-ऐसे हो गया है, बोली- मैं बात करूं, मैं उस पागल को क्या बताता की तेरे कारण ही गई है, कुछ ही देर बाद मधु बच्चों के साथ मेरे पास आ गई, मैं बच्चों की परवाह किये बिना बच्चों की तरह ही सुबक-सुबक कर और चीख-चीख कर रोये जा रहा था, बच्चे सहम गए, मुझे ध्यान आया की मधु ने ही यह कहा था की मैं उसके पास आया हूँ, सो चिदर्पिता के जाने का पाप उसी के सर मढ़ कर उसे मैं कोसने लगा, जब तक चिदर्पिता से बात नहीं हो गई, तब तक कोसता ही रहा, फिर दिल्ली में भी एक घटना घटी, जिसका उल्लेख मैं अगली किश्त में करूंगा, मैं चिदर्पिता को दिल्ली से इस शर्त पर बुला लाया की हम लोग अब आपस में कभी नहीं लड़ेंगे और मधु हमारे बीच कभी चर्चा का विषय नहीं बनेगी, लौट कर आने के बाद हम लोग नए सिरे से जीने लगे, नोंकझोंक तक बंद हो गई, मधु से इसकी बात बंद हो गई थी, मैं हर समय मस्त रहने लगा, इस पर रोज ही कहती की आप पहले वाले लगते ही नहीं हो, बिल्कुल बदल गये हो, मैं कहता की मैं नहीं, तुम बदली हो, तुम कभी शंका और ईर्ष्या की बात मत करना, तो मैं भी कभी नहीं लडूंगा, इस पर कहती अब कभी नहीं करूंगी, मुझे भी अब मधु की तरह कुछ नहीं होता, मैं मन ही मन सोचता की इतना अच्चा मेरा भाग्य कहाँ है? एक महीने के बाद इसकी तड़प शुरू हो गई, बोली- मैं मधु से बात करना चाहती हूँ, मैंने कहा की बात शुरू करते ही, तुम फिर कोई नया ड्रामा शुरू कर दोगी, इसलिए न करना ही अच्छा है, तो इसने मेरी कसम खाई की अब कुछ नहीं होगा, मैंने कहा कर लो, उस समय मधु बरेली थी, उसने फोन रिसीव नहीं किया, तो इसने मैसेज किया की छोटी बहन से कोई इस तरह नाराज होता है और लगातार काल की, तो मधु से फिर बात शुरू हो गई, लेकिन इस बार इन दोनों की बात से कुछ नई बात नहीं हुई, सब कुछ सही चल रहा था, मेरी मत मारी गई थी, मैंने कहा की तुम घर से बाहर निकलती ही नहीं हो, इस मोहल्ले की औरतों के हाव-भाव तुम्हारे प्रति अच्छे नहीं हैं, बोली- औरतों की सुन्दर औरतों से चिढने की बीमारी होती है, मैंने कहा सुन्दरता की देवी सुबह-शाम यह सब टहलती हैं, तुम भी इनके साथ टहल लिया करो, इससे एक तो तुम्हारा परिचय बढेगा, दूसरे तुम्हारे प्रति इनके नकारात्मक भाव भी बदल जायेंगे, तुम्हें जानेंगी-समझेंगी, तो तुम को ही फायदा होगा, बोली- पक्का चली जाया करूं, मैंने कहा पक्का, शाम को ही टहलने चली गई, एक बराबर के घर वाली महिला से ही दोस्ती हो गई, सुबह को उसने अपने घर बुला लिया, उस महान नारी ने पूंछा की अभी बीच में तुम कहाँ चली गई थीं, इसने बताया की देहली गई थी, फिर उसने पूंछा की तुम्हारे जाते ही यहाँ एक महिला और आ गई थी, वो कौन थीं? इतना सुन कर देवी अपने घर में रोते हुए ही आईं, हलकी नोंकझोंक के बाद मैं घर से चला गया, लौट के आया तो फिर वही हाल, अशांति मुझे पसंद ही नहीं है, लेकिन इसी मुद्दे ने विकराल रूप धारण कर लिया, पूरी रात के नाटक के बाद धूर्त भेड़िया के चमचे संपर्क में थे ही, उसकी जिन्दगी पर संकट मंडरा ही रहा था, सो उसने नादानी और गुस्से का भरपूर दुरुपयोग किया, अब बाक़ी सब आपके सामने है ही, मैंने यह चोरी की है, मैंने यह ठगी की है, मैंने यह छल किया है, जो सब आपके सामने है, मुझे साध्वी चिदर्पिता का दोषी होने की सज़ा मौत दे दी जाये ............... खैर, इस पूरी कहानी को पढ़ कर चिदर्पिता आपको खलनायिका ही नज़र आएगी, वो इसलिए की यह सच्चाई सिर्फ एक विन्दु को आधार बना कर लिखी गई है, वास्तव में इस मुद्दे को दरकिनार कर दिया जाए, तो वह बहुत अच्छी है और इतनी अच्छी है की जिस मधु को मैं दुखी नहीं देख सकता, उस मधु को मैं चिदर्पिता के सानिध्य में भूल गया, कुछ नहीं, बल्कि सब कुछ ख़ास था, बस, सामान्य औरतों की तरह ही ईर्ष्यालु और शंकालु है, पर है बहुत अच्छी, बिल्कुल छोटी बच्ची की तरह, नादान, जिस पर गुस्से के तत्काल बाद भी प्यार आ ही जाता है