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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Sunday 28 October 2012

धर्म के ठेकेदारों के विरुद्ध बोलने का उचित समय

धार्मिक स्थलों के निर्माण और पूजा-अर्चना का प्रचलन कब हुआ होगा? इस बारे में धार्मिक अनुयायियों के मत अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन धर्म संबंधी पुस्तकों और धार्मिक विद्वानों के कथन को अलग रख कर विचार किया जाये, तो प्राचीन काल में विशिष्ट लोगों ने जहां जप-तप-हवन-पूजन आदि किया, उन स्थानों को ही पूजनीय स्थल माना जाने लगा होगा और उन्हीं स्थानों से प्रेरित होकर जगह-जगह आज तक धार्मिक स्थल बनते आ रहे हैं, जो कुछ समय पहले तक बेहद आवश्यक भी थे, क्योंकि धार्मिक स्थलों से ही शासन-सत्ता और समूचे समाज का संचालन होता था। व्यक्ति को अच्छे-बुरे की समझ धार्मिक स्थलों में रहने वाले विद्वानों से ही मिलती थी। धार्मिक स्थल कब, कैसे और किसने बनाए, सवाल यह नहीं है। महत्वपूर्ण और बड़ा सवाल यह है, कि समय के साथ धार्मिक स्थलों की संख्या तो बढ़ती चली गई, लेकिन समाज को सही दिशा देने वालों की संख्या घटती गई, जो वैचारिक और सामाजिक पतन का मुख्य कारण कहा जा सकता है।
भारत के लोग प्राचीन काल से ही धार्मिक प्रवर्ति के रहे हैं। उनकी देवी-देवताओं के प्रति अटूट विश्वास और आस्था रही है, इसीलिए भारत में धर्म का अस्तित्व हजारों वर्षों से निरंतर बना हुआ है, लेकिन अर्थ के इस आधुनिक युग की काली छाया धार्मिक स्थलों पर भी पड़ चुकी है। अब अधिकांश धार्मिक स्थलों पर ज्ञानी नहीं मिलते। ईश्वर अनुभूति का विषय है, जिसे कमाई का जरिया बना लिया है। आज के धार्मिक स्थल धार्मिक महत्व को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि उपभोक्ताओं को लुभाने की दृष्टि से उनकी रुचि और सुविधा के अनुसार बनाए जा रहे हैं, तभी धार्मिक स्थलों के अंदर एसी कमरे, रेस्टोरेन्ट, पार्क, स्विमिंग पूल वगैरह प्रमुखता से बनाए जाने लगे हैं। आज के कथित धार्मिक विद्वानों ने आस्था-श्रद्धा और अनुभूति के विषय को पूरी तरह अर्थ से ही जोड़ दिया है। पहले धार्मिक स्थलों पर लोग पूरी तरह से सेवा भाव लेकर जाते थे। धनाढ्य वर्ग के लोग धन से दीन-हीन और गरीबों की सहायता करते थे, वहीं धनाढ्य व गरीब वर्ग के लोग मिल कर असहाय मरीजों की अपने हाथों से सेवा करते थे। धार्मिक स्थलों में भी वेतन पर कर्मचारी नहीं होते थे। झाड़ू-पोंछा और देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का साज-श्रंगार आदि भक्त ही करते थे या गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत होता थामंदिरों में सुबह-शाम होने वाली आरती में सम्मलित होने के लिए भक्त समय से पहले दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हो जाते थे। सब लोग सब कुछ मन से करते दिखते थे, इसीलिए उन्हें शांति मिलती थी, जो ईश्वर के होने का अहसास कराती थी, लेकिन आज अधिकांश लोग धार्मिक स्थल तो जाते हैं, लेकिन अपने घर से भी अधिक वैभवपूर्ण ज़िंदगी जीते हैं। सुबह की पूजा में मंदिर के वेतन भोगी पुजारियों के साथ कुछ पीड़ित और शोषित बुजुर्ग ही दिखते हैं। धार्मिक स्थल पर आने के बाद भी आरती तक में सम्मलित नहीं होते। चार-छः दिन का टूर पूरा करने के बाद चलते समय ग्यारह-इक्कीस या इक्यावन हजार की रसीद कटवा कर लौट आते हैं और मान लेते हैं कि उन्होंने भगवान के नाम पर सात दिन व रुपए खर्च कर भगवान पर बहुत बड़ा हसान कर दिया है। ऐसे धार्मिक स्थलों पर किए गए खर्चे से कोई लाभ नहीं है। ऐसे धन से धंधेबाज पुजारी और अधिक पाप कर्म करते हैं, इसलिए इस सब पर अब रोक लगनी ही चाहिए।
धार्मिक स्थलों में हो रहे पाप कर्मों से आज कोई अनजान नहीं है। सभी जानते हैं, फिर भी मन में यह डर बैठा है कि वह धार्मिक स्थल और उनके भ्रष्ट पुजारियों के बारे में गलत सोचेंगे भी, तो भगवान बुरा मानेंगे, जबकि धंधेबाजों का बहिष्कार करने से भगवान को अपार हर्ष ही होगा। भक्तों के मन में बैठे इस डर को निकालना बेहद आवश्यक है, पर धंधेबाजों के करोड़ों अनुयायी हैं, जिन के डर से मीडिया सच लिखने से बचता रहा है। बुद्धिजीवी अपनी आलोचना होने के भय से मौन हैं, जिससे धर्म के नाम पर हो रहे धंधे की जड़ें और गहरे तक फैलती जा रही हैं, ऐसे में उमेश शुक्ला के साहस को दाद देनी चाहिए, जो उन्होंने किसी की परवाह किए बिना ओह माई गॉड जैसी फिल्म बनाई। इस फिल्म के संवाद उमेश शुक्ला के साथ भावेश मांडलिया ने लिखे हैं, जो इस गंभीर विषय की जान कहे जा सकते हैं। कानजी की भूमिका परेश रावल से अच्छी शायद ही कोई और निभा पाता। सब से अहम बात निर्माता उमेश शुक्ला का साहस ही है। खैर, ऐसे गंभीर विषयों पर पहली बार बोलने का जो जोखिम होता है, वह उमेश शुक्ला ने उठा लिया है। अब समाज और देश के हित में मीडिया और बुद्धिजीवियों को बात आगे बढ़ा देनी चाहिए। चर्चा और बहस के साथ समूचे समाज को जागरूक करने का इससे अच्छा समय कोई और हो ही नहीं सकता।