राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन का आधार भारतीय जनता पार्टी है। बड़े घटकों में अकाली दल,
शिवसेना और जद यू प्रमुख हैं। यहाँ ध्यान देने
की प्रमुख बात यह है कि अकाली दल पंजाब से बाहर की बात नहीं करता, वैसे ही शिवसेना महाराष्ट्र तक सीमित रहती है। भाजपा
के अंदरूनी
मामलों में यह दोनों ही प्रमुख दल ख़ास रूचि नहीं लेते, पर जद यू की ओर से भाजपा को आये दिन चेतावनी मिलती रहती है। जद
यू का बिहार के बाहर ख़ास जनाधार नहीं है, फिर
भी चुनाव के दौरान बिहार के बाहर भी हस्तक्षेप करती रहती है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश
कुमार भाजपा में होने वाली अंदरूनी गतिविधियों में भी अपनी टिप्पणी ही नहीं करते,
बल्कि चेतावनी देते हुए आये दिन हस्तक्षेप
भी करते रहते हैं।
नीतीश
कुमार के दबाव में निर्णय लेने को भाजपा मजबूर है, ऐसा कोई अहम् कारण नज़र नहीं आता। नीतीश कुमार के दबाव
में भाजपा
क्यूं आ जाती है, इसका कोई ख़ास
और सटीक कारण भी नज़र नहीं आता। पहली नज़र में देखा जाये, तो यही लगता है कि भाजपा की अंदरूनी राजनीति के चलते नीतीश कुमार को
भाजपा के अन्दर से ही शक्ति मिलती होगी और वह भाजपा के ही किसी शीर्ष नेता के हाथों की कठपुतली मात्र
हैं। भाजपा के किसी शीर्ष नेता के इशारे पर ही वह भाजपा के अंदरूनी मामलों में
बयान देकर उस नेता की राह का काँटा निकालने का प्रयास करते रहते हैं। मुख्य
रूप से नरेंद्र मोदी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के मुद्दे पर नीतीश कुमार भाजपा को
अक्सर चेतावनी देते रहते हैं। वह खुलकर कहते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को प्रत्याशी घोषित किया गया,
तो जदयू राजग से अलग हो जाएगी। यहाँ सवाल यह
उठता है कि राजग से अलग होने पर सिर्फ भाजपा को ही नुकसान होगा, जदयू को नहीं होगा। अगर, जद यू को भी नुकसान होगा, तो नीतीश कुमार को राजग से अलग होने का भय क्यूं नहीं होना
चाहिए, उनकी चेतावनी पर भाजपा को दबाव में
क्यूं आना चाहिए? इसके अलावा
सवाल यह भी है नीतीश कुमार को मोदी की छवि से परहेज है, तो कल्याण सिंह और उमा भारती भी कट्टरपंथी छवि वाले नेता हैं, यह दोनों नेता पहले भाजपा में थे, तब भी नीतीश को कोई आपत्ति नहीं थी और अब पुनः भाजपा में आये,
तो भी आपत्ति नहीं है, इसी तरह विनय कटियार और नया चेहरा वरुण गाँधी पर भी
नीतीश टिप्पणी नहीं करते, जिससे साफ़ है कि नीतीश किसी
भाजपा नेता के इशारों पर ही बोलते होंगे। दूसरा कारण यह हो सकता है कि मोदी की लोकप्रियता से
नीतीश को व्यक्तिगत तौर पर ईर्ष्या होगी और तीसरा कारण यह नज़र आता है कि
लोकप्रिय मोदी पर टिप्पणी कर वह झटके से राष्ट्रीय खबरों में आ जाते हैं, इसलिए चर्चा में आने के लिए भी मोदी पर टिप्पणी
करते रहने की संभावना है।
नीतीश
कुमार को वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय की भावनाओं की चिंता होती, तो नीतीश मोदी के साथ कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार और वरुण गांधी को भी उसी दृष्टि से देख रहे
होते, क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय जिस
नज़र से मोदी को देखता है, उसी
नज़र से इन नेताओं को देखता है। इसके अलावा मोदी हिंदुत्व और राम मंदिर की
बात नहीं करते, वह देश को आगे ले जाने की
बात करते हैं, विकास की बात करते
हैं, जबकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह खुलेआम हिंदुत्व
और राम मन्दिर की बात कर रहे हैं, पर नीतीश कुमार को राजनाथ सिंह के बयान पर कोई आपत्ति नहीं है।
खैर,
भाजपा में कब, क्या, क्यूं
और कैसे होना
चाहिए, यह निर्णय भाजपा का ही
होना चाहिए, न कि नीतीश कुमार का,
इसलिए नीतीश कुमार के दबाव में आने की बजाये भाजपा को
स्पष्ट कर देना चाहिए कि भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नरेंद्र
मोदी के साथ कोई भी हो, उससे उनका कोई
लेना-देना नहीं होना चाहिए। नीतीश कुमार जदयू का अपना प्रत्याशी घोषित कर चुनाव में उतरें। राजग को
बहुमत मिलने की स्थिति में राजग की बैठक में सांसदों की राय के अनुसार राजग का
प्रधानमंत्री चुनाव बाद सर्वसम्मति से पुनः चुन लिया जाये, पर भाजपा की ओर से ऐसा आज तक नहीं कहा गया, जिससे साफ़ है कि नीतीश कुमार से मोदी का
विरोध कराया जाता है।
भाजपा और
जद यू के रिश्ते का आंकलन राजनैतिक हानि-लाभ की दृष्टि से किया जाये, तो नरेंद्र मोदी को प्रत्याशी घोषित करने की स्थिति
में भाजपा को जद यू से अलग होने में ही लाभ है, क्योंकि मोदी उत्तर प्रदेश और बिहार में गुजरात से
अधिक लोकप्रिय हैं। वह प्रत्याशी घोषित हुए, तो इन दोनों राज्यों में भाजपा की लहर होगी, जिसका लाभ गठबंधन की स्थिति में जद यू को भी मिलेगा
और भाजपा ने रिश्ता तोड़ लिया, तो
उत्तर प्रदेश और बिहार की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए वह स्वतंत्र होगी।
कूटनीतिक दृष्टि से देखा जाए, तो
आने वाले लोकसभा चुनाव से पहले जदयू का रिश्ता राजग से टूटने की संभावना अधिक
हैं, क्योंकि चुनाव बाद राजग की संभावित सरकार
के चलते नीतीश कुमार केंद्र की राजग सरकार में दबदबा बनाए रखने की नीयत से जदयू के हिस्से
में और अधिक सीटें मांगेंगे, जो भाजपा देने में असमर्थ
साबित होगी, तो नीतीश कुमार
अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए यही बयान देकर अलग होंगे कि नरेंद्र मोदी को
अहमियत देने के कारण वह राजग से रिश्ता तोड़ रहे हैं, इसलिए नीतीश कुमार को राजनैतिक लाभ का अवसर देने से पूर्व ही जदयू से भाजपा को स्वयं
नाता तोड़ लेना चाहिए। इससे भाजपा को और भी कई फायदे होने की संभावनाएं हैं। सब से
पहले अगर, भाजपा चाहती है, तो लोकप्रिय नरेंद्र मोदी को प्रत्याशी बनाने
की सबसे बड़ी बाधा दूर हो जायेगी। दूसरा लाभ चुनाव बाद उसकी सरकार आई, तो नीतीश कुमार बाद में भी लगातार मुश्किलें पैदा करते रहेंगे,
जिससे चुनाव पूर्व ही जद यू से छुटकारा पा लेना भाजपा
का बेहतर निर्णय माना जायेगा।
राजनाथ
सिंह के बयान के अनुसार भाजपा चुनाव में हिंदुत्व और राम मन्दिर मुद्दे के साथ उतरी,
तो बिहार में नीतीश कुमार के साथ सयुंक्त जनसभाएं
करने में भी असहज करने वाली स्थिति होगी, क्योंकि नीतीश की सोच के साथ भाजपा बिहार में हिंदुत्व और राम मन्दिर की बात नहीं कर पायेगी। इसके अलावा
नीतीश कुमार की लोकप्रियता का ग्राफ बिहार में भी गिरा है। जनता में सत्ताधारी दल के प्रति कुछ
न कुछ नाराजगी रहती है। गठबंधन की दशा में बिहार के मतदाताओं की नाराजगी का
शिकार भाजपा बेवजह हो सकती है, इसलिए भाजपा को जद यू से नाता तोड़ने में अधिक लाभ है। चुनाव के बाद की बात की जाए,
तो जद यू के पास भाजपा को समर्थन देने
के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।