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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Sunday 20 November 2011

आने वाले 64 सालों में भी नहीं बदलेगी हकीकत

जिंदगी से किसी तरह जूझते भूखे, नंगे व्यक्ति से कह दिया जाये कि आपके तो आनंद आ रहे हैं, तो ऐसे व्यक्ति के कान में पहुंचते ही यह शब्द गर्म तेल जैसा ही काम करेंगे। कल्पना से परे ऐसे मजाक पर भुक्त भोगी आक्रोश व्यक्त करने की बजाये अपना सिर पकड़ कर बैठ जायेगा और उसे सामान्य होने में काफी देर लगेगी। गरीबी रेखा का मानक तय करते हुए यूपीए सरकार ने ऐसा ही मजाक किया है, जबकि यह तय करने वालों के साथ सरकार में बैठे सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं कि आम आदमी की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है।
वास्तविकता आंकड़ों के ठीक विपरीत ही है, पर आंकड़ों की ही बात की जाये, तो सरकार में बैठे लोगों को अच्छी तरह पता है कि आजादी के बाद 64 सालों में अब तक वह आम आदमी को मूल भूत सुविधायें तक नहीं दे पाये हैं। खाद, बीज, दवा, पेयजल, सिंचाई की व्यवस्था, बिजली, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के साथ मनोरंजन के साधन आम आदमी को समान रूप से मुहैया नहीं करा पाये हैं। आम आदमी की यह स्थिति दस्ताबेजों में दर्ज है और दस्ताबेज सरकार के पास सुरक्षित हैं, फिर भी सरकार में बैठे लोग दलील दे रहे हैं कि हालात बदल गये हैं और आम आदमी अब पहले से अधिक संपन्न हो गया है या उसके आमदनी के साधन बढ़ गये हैं, तभी भ्रष्टाचार और महंगाई के साथ बेरोजगारी से जूझ रहे लोग झुंझलाते नजर आ रहे हैं। सरकार के इस निर्णय से लोग इतने व्यथित हैं कि झल्लाहट के चलते सरकार में बैठे लोगों की आलोचना करना भी उचित नहीं समझ रहे।
गरीबी रेखा का मानक तय करने वाले मापदंडों पर नजर डालें, तो किसी परिवार के वयस्क पुरुष की आये अगर बत्तीस रुपये प्रति दिन है, तो वह परिवार गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में नहीं आ सकता, पर सवाल यह है कि महंगाई के इस दौर में बत्तीस रुपये प्रति दिन की आये वाला परिवार जीवन यापन किस तरह और कैसे कर सकता है?
चार सदस्यों वाले परिवार की ही बात की जाये, तो नौ सौ या हजार रुपये प्रति माह की आमदनी से चाय पीकर गुजारा कर पाना भी असंभव ही नजर आता है। बत्तीस रुपये आये वाला परिवार घर में तेल से मिटटी का बना दीपक ही जला सकता है, ऐसे में आटा, दाल, सब्जी, बच्चों की पढ़ाई, बीमारी पर खर्च करने को धन कहां से या कैसे लायेगा? गरीबी रेखा की लाइन खींचते समय जिम्मेदार लोगों को ऐसे यक्ष प्रश्रों का जवाब भी साथ में देना चाहिए था, पर सरकार में बैठे लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसे प्रश्रों का कोई जवाब ही नहीं है, फिर भी वास्तविकता से हट कर नियम निर्धारित कर रहे हैं, जिससे आम आदमी को दु:ख होगा ही।
सरकारी मापदंड ही बताते हैं कि जो परिवार रोटी को मोहताज न हों, स्वच्छ पानी पी रहे हों, बच्चे सामान्य शिक्षा ग्रहण कर रहे हों, सामान्य बीमारियों का इलाज कराने में सक्षम हों और पक्की दीवारों पर पड़ी पक्की छत के नीचे रहते हुए तन ढका हो, तो ऐसे परिवार सामान्य परिवारों की श्रेणी में ही गिने जायेंगे, पर सरकार में बैठे लोगों को अच्छी तरह पता है कि अभी तक वह न्याय पंचायत स्तर पर प्राथमिक विद्यालय व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक नहीं खोल पाये हैं और जहां खोल दिये गये हैं, वहां स्टाफ और दवा के साथ पर्याप्त साधन तक नहीं हैं, फिर भी उन्हें अधिकांश परिवार सामान्य ही नजर आ रहे हैं। माना समय के साथ लोगों का रहन-सहन, खान-पान बदला है, पर किसी के पास मोबाइल होना अमीरी का प्रमाण पत्र भी नहीं है, क्योंकि चार-पांच सदस्यों वाले परिवार में बीस रुपये प्रति दिन की सिर्फ सब्जी ही चाहिए, जो रोटी से खाई जायेगी। ऐसे परिवारों के लोग विटामिन्स के बारे में न जानते हैं और न ही जान कर वैसा खाने की उनकी हैसियत है, पर सरकार को लगता है कि ऐसे परिवार सामान्य श्रेणी के ही परिवार हैं और उन्हें किसी तरह की सरकारी मदद नहीं मिलनी चाहिए। किसी तरह जिंदगी से जूझ रहे लोगों के प्रति सरकार की यह सोच मजाक नहीं, तो और क्या है? हालांकि मदद के तौर पर सरकार की जो योजनायें या कार्यक्रम चल रहे हैं, उनका लाभ भी पात्रों को नहीं मिल पा रहा है, इसलिए उनका नाम अगर पात्रता की श्रेणी से भी निकल जाये, तो भी उन्हें खास गम नहीं होने वाला, पर दु:ख के साथ सवाल है कि एयर कंडीशन कारों में घूमने वालों को अपने देश के आम आदमी की सही जानकारी क्यूं नहीं है?
भाग्य विधाताओं को अगर आम आदमी के दर्द का अहसास भी होता, तो परिवर्तन के लिए 64 साल का समय कम नहीं होता। इसीलिए नाकाम भाग्य विधाता जमीन पर परिवर्तन करने की बजाये कागजों में आंकड़ेबाजी के फंडे से आम आदमी को अमीर घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे आने वाले 64 सालों तक भी कुछ नहीं बदलने वाला। सबसे बड़े दु:ख की बात यही है।