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Tuesday 8 November 2011

राजनीति के खेल में किसी के भी गले में पड़ सकता है हार

उत्तर प्रदेश की सत्ता कब्जाने को अधिकांश राजनैतिक दल आतुर नजर आ रहे हैं, तभी विधान सभा चुनाव में समय शेष होने के बाद भी अधिकांश राजनैतिक दलों ने चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। कई प्रमुख दलों ने अपने प्रत्याशियों की भी घोषणा कर दी है, जो क्षेत्र में प्रचार करते नजर आ रहे हैं। राजनैतिक दलों व प्रत्याशियों की गहमा-गहमी के चलते उत्तर प्रदेश का वातावरण चुनावी नजर आने लगा है, पर चुनाव को लेकर जनता उत्सुक नजर नहीं आ रही है, क्योंकि अभी तक जनता वर्तमान राजनैतिक दलों में सर्वश्रेष्ठ विकल्प निश्चित नहीं कर पा रही है। आम आदमी की मंशा देख कर यही लगता है कि वह इस बार किसी एक के सिर पर ताज बांधने को लेकर असमंजस की स्थिति में ही है।
राष्ट्रीय स्तर के दलों की बात की जाये, तो महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी की नजर में कांग्रेस की छवि बेहद खराब है। आम आदमी कांग्रेस को किसी कीमत पर वोट देने वाला नहीं है। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव द्वारा उठाये मुद्दे आम आदमी के लिए खास अहमियत नहीं रखते, पर वह कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार के कार्यकाल में बढ़ी महंगाई को लेकर ही काफी आहत है। भाजपा की बात करें, तो सत्ता से बेदखल होने के बाद से भाजपा नेता व कार्यकर्ता आम आदमी से इतनी दूर जा चुके हैं कि अब पुन: वापसी की संभावनायें कम ही नजर आ रही हैं। संगठन के नाम पर उत्तर प्रदेश में सिर्फ वीआईपी पदाधिकारी ही बचे हैं, जिनका आम आदमी से मिलना तक दुश्वार नजर आता है और अगर मिल भी जायें, तो आम आदमी से बात करने भर से उनके सिर में दर्द होने लगता है। भाजपा की इस दूरी के कारण ही आम आदमी भाजपा को भी विकल्प के रूप में दूर-दूर तक नहीं देख रहा, इसलिए बहुजन समाज पार्टी की सरकार से त्रस्त आम आदमी असमंजस की स्थिति में नजर आ रहा है, लेकिन बसपा की धुर-विरोधी होने के कारण जनता विकल्प के रूप में समाजवादी पार्टी को किसी हद तक देखती नजर आ रही है, पर प्रदेश के राजनैतिक हालात देखते हुए यह भी स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी को भी स्पष्ट बहुमत मिलने वाला नहीं है। अनुमान की दृष्टि से इतना निश्चित माना जा सकता है कि भविष्य में होने जा रहे चुनाव में समाजवादी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आ सकती है, क्योंकि कई तरह के मुद्दों को लेकर समाजवादी पार्टी समय-समय पर प्रदेश में आंदोलन करती रही है और आम आदमी के साथ स्थानीय स्तर पर भी आवाज बुलंद करती रही है। जातीय आंकड़ों की दृष्टि से भी देखा जाये, तो कांग्रेस की आम आदमी की नजर में छवि खराब होने के कारण मुस्लिम वोट भी कांग्रेस की ओर जाने के बारे में नहीं सोच रहा है। बसपा शासन में भी भ्रष्टाचार और मनमानी के चलते मुस्लिम समाज को कोई विशेष सम्मान नहीं मिल पाया है, इसलिए बसपा की ओर झुकाव नहीं दिख रहा और भाजपा की नीतियों-रीतियों में उसे कभी विश्वास रहा नहीं है, इसलिए मुस्लिम वोट भी विखरे नजर आ रहे हैं। सवर्ण वर्ग की बात की जाये, तो वह भी किसी खास दल को लेकर एकमत नजर नहीं आ रहे, लेकिन बसपा के कुशासन से मुक्ति पाने के लिए वह भी बेहतर विकल्प की तलाश में भटकते नजर आ रहे हैं, जिनमें ठाकुर व वैश्य वर्ग की पहली पसंद सपा हो सकती है। ब्राह्मण चुनाव के समय ही अपने पत्ते खोलेंगे, इसीलिए अभी तक मौन हैं। 
चुनाव बाद की तस्वीर पर नजर डालें, तो समाजवादी पार्टी सवा सौ और डेढ़ सौ सीटों के साथ प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी नजर आ रही है, लेकिन सरकार को लेकर उत्तर प्रदेश के हालात विकट नजर आ रहे हैं, क्योंकि सवा सौ के करीब सीटें बसपा की भी आने की संभावनायें जताई जा रही हैं, वहीं अस्सी के आस-पास भाजपा व पचास के इर्द-गिर्द कांग्रेस भी ले सकती हैं और बीस सीटों के साथ रालोद जैसी एक-दो अन्य पार्टी भी अपना अस्तित्व बचाये रखने में कामयाब रहने वाली हैं। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस बहुमत के बारे में सोचने की बजाये उत्तर प्रदेश को अस्थिर बनाने की दिशा में काम कर रही है, ताकि दबाव बना कर वह अपना मुख्यमंत्री बनाने में सफल हो जाये और ऐसा हो भी जाये, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रीय लोकदल के खाते में भी बीस के करीब सीटें जाती रही हैं, जिससे अल्पमत की सरकार में अजीत सिंह की भूमिका अहम रह सकती है, जिसके बारे में अधिकांश लोग कयास लगा सकते हैं, लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश की राजनीति में किगमेकर की भूमिका किसी और के हाथों में भी जा सकती है, जिसकी ओर किसी का अभी तक ध्यान ही नहीं जा रहा है और वह शांत भाव के साथ अपना काम लगातार कर रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह पूरी तन्मयता के साथ विधान सभा चुनाव की तैयारियों में लगे हुए हैं और चुनिंदा क्षेत्रों में दमदार प्रत्याशी उतार कर पच्चीस-तीस विधायक जिताने की दिशा में काम करते नजर आ रहे हैं। हालांकि पिछले विधान सभा चुनाव में भी उन्होंने अपने प्रत्याशी उतारे थे, पर इस बार वह भाजपा के प्रत्याशियों को हराने के लिए नहीं, बल्कि अपने प्रत्याशियों को जिताने के बारे में अधिक काम करते दिख रहे हैं, तभी अपनी अयोध्या कांड की हीरो वाली छवि को भुनाने के उददेश्य से अयोध्या से चुनाव प्रचार अभियान का शुभारंभ करने का निर्णय लिया है। उनके घोषित प्रत्याशियों की सूची पर एक नजर डाली जाये, तो स्पष्ट नजर आ रहा है कि वह इस बार उत्तर प्रदेश की राजनीति में किगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं।
खैर, सत्ता के खेल में नंबर वन आने के लिए सभी अपने-अपने दाव-पेंच अजमाते ही हैं, लेकिन कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, लोकदल या राष्ट्रीय क्रांति पार्टी में से उत्तर प्रदेश के तटस्थ मतदाता किस को अपने पलकों पर बैठाते हैं, यह तो समय ही निश्चित करेगा, पर देखने वाली खास बात यही होगी चुनावी दौड़ में नंबर वन पाने वाला राज करेगा कि या सबसे पीछे रहने वाला, क्योंकि राजनीति के खेल में जीत का हार किसी के भी गले में पड़ सकता है।