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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Wednesday 9 November 2011

आज भी अठारहवीं सदी में जी रहे हैं लोग

पिछले दिनों हरियाणा के एक गांव समसपुर निवासी रणधीर सिंह को स्वगोत्र में शादी करने पर खाप पंचायत ने गांव छोडऩे व उसकी चल-अचल संपत्ति जब्त करने का आदेश दे दिया। पंचायत ने यह भी फरमान जारी किया कि जो उसकी मदद करेगा उसे भी इक्कीस सौ रुपये का दंड भुगतना पड़ेगा। इसी तरह महाराष्ट्र में अमरावती जिले के एक गांव मगरूर चौरा में प्रशांता नाम की एक महिला को शिक्षा विभाग के एक अधिकारी ने सार्वजनिक तौर पर पीट दिया। ऐसे अधिकारी के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बजाय बिरादरी के ही लोगों ने महिला को जाति से इसलिए अलग कर दिया कि मारपीट के दौरान उसे एक गैर जाति के मर्द ने हाथ लगाया था। ऐसी जघन्य वारदातें किसी न किसी क्षेत्र में आये दिन घटती रहती हैं, पर उक्त दोनों घटनायें उन लोगों का भ्रम तोडऩे को काफी हैं, जो जातियों के खंडित होने का दावा करते हुए खुशी मनाने की बात कह रहे हैं।
जाति व्यवस्था के टूटने का दावा करते हुए हर्ष व्यक्त करने वालों को शायद, यह पता नहीं है कि समाज का एक बहुत छोटा तबका ही इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर पाया है, बाकी समाज आज भी बीसवीं या उन्नीसवीं नहीं बल्कि अठारहवीं या सत्तरहवीं सदी में ही जी रहा है। इसलिए जब तक पूरा का पूरा समाज इक्कीसवीं सदी में नहीं आयेगा तब तक जाति व्यवस्था को कोई नहीं तोड़ सकता। जाति ही क्यों धर्म, परंपरा, रिश्ते या जो भी प्राचीन व्यवस्थायें बनी हुई हैं, उन्हें खंडित नहीं किया जा सकता। इसके अलावा अगर पूरे ताने-बाने पर नजर डाली जाये तो व्यक्तियों से मिल कर परिवार बनता है। रिश्तों या परिवारों के मिलने से जातियां बनती हैं। जातियों के मिलने से समाज बनता है। समाज से राज्य या राष्ट्र बनते हैं और राष्ट्रों को जोड़ कर देखा जाये तो एक दुनिया नजर आती है। मतलब जब तक व्यक्ति है तब तक दुनिया है और जब तक व्यक्ति और दुनिया है तब तक उसके बीच में आने वाली सीढिय़ां जाति, रिश्ते, समाज, राज्य या राष्ट्र वगैरह भी रहेंगे।
जातियों के टूटने का दावा करने वालों की मनोदशा से प्रतीत हो रहा है जैसे ब्राहमण, ठाकुर, वैश्य, यादव, मौर्य, कायस्थ, जाटव, खागी, लोधी, धीमर, धोबी, जुलाहा, नाई, कुम्हार, जाट, गूजर सहित सभी पच्चीस सौ चालीस जातियों के परिवारों के घर अपनी बेटी का रिश्ता लेकर जाने लगे हैं या यह सब लोग सवर्णों के घर रिश्ता लेकर आने लगे हैं और हंसी-खुशी दान-दहेज के साथ सब एक-दूसरे की जातियों में विवाह करने लगे हैं, जबकि अभी तक ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि सामाजिक ताना-बाना जितना जटिल तब था, उतना ही जटिल आज भी है। कुछ भी नहीं बदला है। बदली है तो कुछेक लोगों की सोच, जो ऐसा कुछ न होने पर भी खुद तो खुशी मना ही रहे हैं, औरों से भी खुशी मनाने की अपील कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि अलग-अलग जातियों में शादियां तो हो रही हैं। यह भी सही है। पर ऐसी शादियों को जातियों या समाज ने अभी मान्यता नहीं दी है और न ही जातियां या समाज ऐसी शादियों को मान्यता देने को अभी तैयार दिख रहा है। सबसे पहले यह बताना जरूरी है कि अलग-अलग जातियों में हुईं नब्बे प्रतिशत से अधिक शादियों में लड़कियां, लडक़ों की जाति से नीची जाति की दिखाई देती हैं। ऐसी शादियों की संख्या बहुत कम है, जिनमें लडक़ी सवर्ण हो और लडक़ा शूद्र मतलब दलित या पिछड़े वर्ग का। ऐसी शादियां जातियों के टूटने का उदाहरण कतई नहीं हो सकतीं क्यों कि इस तरह की शादियां यहां सैकड़ों सालों से होती आ रही हैं, साथ ही ऐसी शादियां जानबूझ कर जाति व्यवस्था तोडऩे के इरादे से नहीं बल्कि सेक्सुअल आकर्षण के चलते परवान चढ़ती हैं।
दूसरी ओर जातियों या समाज के विरोध के चलते कुछ ही समय बाद ऐसे दंपति को अपनी भूल का अहसास भी होने लगता है क्योंकि उनकी महानता, भूल या गलती की सजा जाति या समाज उनके साथ, उनकी संतानों के साथ, कई पीढिय़ों तक देता है। मानसिकता न बदलने के कारण ऐसे दंपति अपनी संतानों की शादियां पुरुष की जाति में ही करना चाहते हैं, लेकिन उनका एक जाति का न होना, संतानों की शादी में अक्सर बाधा बनता है। बहुत कम ऐसे मामले हैं, जिनमें ऐसे बच्चे अपने नाना-नानी, मामी-मामी को जानते हैं या ऐसे रिश्तों के बारे में कुछ समझते हैं। ऐसे बच्चे यह तक नहीं जानते कि ननिहाल किसे कहते हैं? दादा-दादी, चाचा-चाची और बूआ-फूफा के रिश्तों के बारे में भी सिर्फ किताबों में ही पढ़ते हैं। इसीलिए युवा होने पर जब उन्हें अपने महान माता-पिता की अलग-अलग जाति और शादी की कहानी पता चलती है तो अधिकतर मामलों में ऐसी संतानें हीनभावना का ही शिकार होती देखी जाती हैं। ऐसे दंपतियों को उनकी अपनी संतान भी सजा देती है।
गैर-जातियों में होने वाली शादियां अक्सर प्रेम विवाह के रूप में ही परवान चढ़ती हैं। प्रेम विवाह करने वाले दंपति अगर गांव के हैं तो अधिकतर दंपतियो का जीवन शहर में ही गुजर जाता है क्योंकि गांव में ऐसे दंपतियों को आज भी अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। गांव ही क्यों ऐसे दंपतियों का साथ उनका अपना परिवार ही नहीं देता। लडक़ा किसी गैर जाति की लडक़ी से विवाह कर ले तो परिवार या गांव वाले किसी हद तक कुछ क्षेत्रों में क्षमा कर भी देते हैं, पर लडक़ी को कहीं भी और किसी भी कीमत पर क्षमा नहीं किया जाता। गैर-जाति की तो बात ही छोडिय़े स्वगोत्र में शादी करने पर भी पूरा हंगामा हो जाता है। ऐसी लडक़ी के परिवार को कई पीढिय़ों तक सजा भुगतनी पड़ती है। ऐसी लडक़ी के परिवार में कई पीढिय़ों तक लडक़ों की शादियों पर एक तरह से प्रतिबंध सा ही लग जाता है। किसी भी लडक़ी का पिता जब रिश्ता लेकर आता है और जब उसे पता चलता है कि इस परिवार की एक लडक़ी ने गैर जाति या स्वगोत्र के लडक़े से शादी कर ली है तो संपन्न परिवार होने के बाद भी ऐसे परिवार में कोई भी दहेज रहित विवाह करना भी पसंद नहीं करता। फिर जातियां कहां टूट रही हैं? इसलिए यह कहा जाना चाहिए कि जातियां नहीं बल्कि सेक्सुअल आकर्षण के चलते कुछ लोग टूट रहे हैं या वे लोग टूट रहे हैं जो इक्कसवीं सदी में आ चुके हैं।
इक्कीसवीं सदी में कुछ पूंजीपति, कुछ उद्योगपति, फिल्म क्षेत्र से जुड़े परिवार व कुछ राजनीतिक परिवार ही आये हैं। ऐसे लोगों की संख्या दो करोड़ से ज्यादा नहीं होगी। इक्कीसवीं सदी में आ चुके इस वर्ग की नजर में जाति, धर्म, परंपरा, रिश्ते यह सब ढकोसला माने जाते हैं क्योंकि ऐसे आधुनिक समाज की नजर में अर्थ को ही महत्ता दी जाती है। महत्ता ही नहीं बल्कि पैसे को ही भगवान माना जाता है। इसलिए ऐसे समाज में कुछ भी हो रहा है तो वह पूरे समाज का उदाहरण नहीं हो सकता क्योंकि दो करोड़ से भी कम लोग सवा अरब लोगों के समाज की परंपराओं या मान्यताओं के वाहक नहीं हो सकते। इसके अलावा गैर-जातियों में शादी करने की परंपरा अगर इस वर्ग में बढ़ भी रही है तो शास्त्रों या पुराणों में ही कहा गया है कि समरथ को नहीं दोष गुसाईं। सामाजिक नियम, कानून, दायरे, परंपरायें या मान्यतायें किसी भी काल में सामर्थ्‍यवान को कुछ भी करने से नहीं रोक पायी हैं। फिर इस समय भी सामर्थ्‍यवान अगर ऐसा कर रहे हैं तो वह पूरे समाज का आईना नहीं हो सकते।
उक्त बातें आज के समाज का सच है, पर कुछ लोग अविश्वास भी जता सकते हैं। ऐसे लोगों को पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले वैवाहिक विज्ञापनों पर नजर डालनी चाहिए। पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन प्रकाशित कराने का चलन तो बढ़ा है। लेकिन विज्ञापन जातिगत कॉलम के अन्तर्गत ही दिखाई देते हैं। जाति के साथ नाड़ी, वर्ण और गोत्र का उल्लेख करते हुए सम्बंधित व्यक्ति या परिवार से संपर्क करने की अपील की जाती है। जाति व्यवस्था को अगर कानूनी नजरिये से देखा जाये तो जाति के आधार पर कोई श्रेष्ठ नहीं है। सभी जातियों को बराबर का दर्जा मिला हुआ है। जाति सूचक शब्दों का प्रयोग करने पर या छूआछूत करने पर दंड का भी प्रावधान है, पर दूसरा कानून जाति के आधार पर ही आरक्षण देने का हिमायती है।
इसलिए सवाल उठता है कि सामाजिक ताने-बाने को अभी तक कानून भी मान रहा है, फिर समाज से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह जाति व्यवस्था को भूल जाये या तोड़ दे? राजनीतिक चश्मे से अगर एक नजर डाली जाये तो देश के तमाम नामचीन राजनीतिक परिवारों में गैर-जातियों की बहुएं दिखाई देती हैं, लेकिन आश्चर्य की ही बात कही जायेगी कि ऐसे अधिकतर परिवारों की राजनीति का आधार ही जाति व्यवस्था है। अगर जाति व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो जाये तो ऐसे परिवारों की तो राजनीति ही समाप्त हो जायेगी। गैर-जातियों में शादियां करने के बाद भी लोग जाति व्यवस्था के कट्टर पक्षधर हैं। अंत में मुगल काल की एक घटना का उल्लेख सही रहेगा। महाराणा प्रताप के वंशज अमर सिंह राठौर जैसे बहादुर व्यक्ति को अर्जुन सिंह गौड़ नाम के व्यक्ति ने धोखे से मार दिया था। इस घटना को पूरे गौड़ गोत्र से ही जोड़ दिया गया। इसलिए गौड़ गोत्र के ठाकुरों से अन्य गोत्रों के ठाकुरों ने वैवाहिक सम्बंध विच्छेद कर दिये थे। इस घटना को हुए कई पीढिय़ां बीत चुकी हैं, पर आज भी अन्य गोत्रों के ठाकुर शादियां करते समय गौड़ गोत्र का विशेष ध्यान रखते हैं। इस से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऐसे समाज में जातियों के टूटने का दावा करना भ्रम नहीं तो और क्या है