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Thursday 10 November 2011

बच्चों से दूर जा चुके अभिवावक करते हैं ऑनर किलिंग

ऑनर किलिंग के मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है। सरकार भी गंभीर नजर आ रही है और कड़ा कानून बनाने पर विचार कर रही है। ऑनर किलिंग को कुछ लोग सही ठहराने की कोशिश रहे हैं तो कुछ लोग जघन्य अपराध मानते हुए कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। दोनों ही तरह की मानसिकता के लोगों के अपने-अपने तर्क हैं, इसलिए दोनों तरह की मानसिकता वाले लोग सही हो सकते हैं, पर सवाल यह नहीं है कि कौन सही है या कौन गलत? सवाल यह है कि ऐसे हालात ही उत्पन्न क्यों हो रहे हैं, जिससे ऑनर किलिंग जैसा अपराध सामने आ रहा है। चर्चा अपराध की पृष्ठभूमि को लेकर होनी चाहिए, पर उस पर चर्चा करने से सभी बचते नजर आ रहे हैं, जबकि ऑनर किलिंग जैसे अपराध को अपराध की पृष्ठभूमि में जाये बगैर या उस पर अमल किये बगैर नहीं रोका जा सकता।
ऑनर किलिंग के पीछे सबसे प्रमुख कारण यही है कि सोच और व्यवहार में तालमेल नहीं बैठ पा रहा है। पश्चिम की नकल करने में हमें तात्कालिक सुख की अनुभूति होती है, इसलिए हम पश्चिम की नकल करते हुए सुख भोगने में पीछे नहीं रहना चाहते, पर यह एकदम सच है कि हम पश्चिम की नकल सिर्फ सुख भोगने के लिए ही कर रहे हैं, क्योंकि आत्मा से अगर उसे पसंद कर रहे होते तो जीवन में भी उतार चुके होते, ऐसा नहीं है, तभी हमारी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। मतलब ऊपर से हम अंग्रेज दिख रहे हैं और अंदर से आज भी वर्ण या जाति व्यवस्था के कट्टर पक्षधर हैं। सब कुछ सही चल रहा हो तो हम अंग्रेज ही बने रहना चाहते हैं, पर बच्चे नकल नहीं कर रहे, वह इसी माहौल में जन्म ले रहे हैं और हमें देख कर बड़े हो रहे हैं, इसलिए वह व्यवहार को साकार करने की कोशिश करते हैं तो हम उसे प्रतिष्ठा से जोड़ लेते हैं और ऑनर किलिंग जैसे अपराध तक करने में हाथ नहीं कांपते।
सोच और व्यवहार में तालमेल न होने के भी कई कारण हैं, जैसे वर्तमान में धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक वातावरण पूरी तरह बदल चुका है, जिसका असर पारिवारिक वातावरण पर भी पड़ा है। मुझे अच्छी तरह याद है कि गांवों में एक ही घर में रहने के बावजूद महिलाओं का क्षेत्र अलग आरक्षित रहता था और उस क्षेत्र में पुरुषों का खास कर बाहरी पुरुषों का प्रवेश पूरी तरह वर्जित माना जाता था। अकारण एक-दूसरे परिवारों की महिलायें तक एक-दूसरे के घर नहीं जाया करती थीं और अगर जाती भी थीं तो उन महिलाओं के बीच में बैठने की आजादी अविवाहित लड़कियों को नहीं मिलती थी। नवविवाहिताओं से भी अविवाहित लड़कियों को दूर रखा जाता था। ऐसे नियम का उल्लंघन होने पर घर की बुजुर्ग महिलायें या बुजुर्ग पुरुष घर सिर पर उठा लिया करते थे। तरह-तरह के सवालों-जवाबों के साथ लंबी पूछताछ करते थे कि यह महिला क्यों आयी या इतनी देर क्यों बैठी अथवा क्या-क्या बातें कीं, अब ऐसा नहीं है। मां-बेटी, पिता या भाई साथ-साथ बैठ कर फिल्म देखते हैं और कमेंट भी करते हैं।
खैर, गुजरे दौर में दिन की शुरुआत पूजा-अर्चना से होती थी तो सोने से पहले दादा-दादी ज्ञानबर्धक कहानियां सुनाते थे। इसका कारण यही था कि बुजुर्ग नहीं चाहते थे कि उनके बच्चों पर गलत असर पड़े। ऐसी निगरानी के कारण ही बच्चे तमाम तरह की बातें किशोरावस्था के बाद तक नहीं जान पाते थे, लेकिन अब ऐसी निगरानी करने का कोई मतलब नहीं रह गया है, क्योंकि घर में टीवी और मोबाइल होता ही है। कंप्यूटर और इंटरनेट भी कॉमन होता जा रहा है। इन चारों अत्याधुनिक साधनों के संपर्क में होने से ही वह सब बातें बच्चे अल्प आयु में ही सीख जाते हैं, जो किशोरावस्था में भी कहने/सुनने या समझने में हिचकते थे। आज के छोटे-छोटे बच्चे भी अच्छी तरह से जानते हैं कि शारीरिक सम्बंध बनाना पाप नहीं बल्कि एक शारीरिक क्रिया है, साथ ही बच्चे यह भी जानते हैं कि अगर चूक हो जाये तो सिर्फ एक गोली सभी चिंताओं से निजात दिला देती है।
इसके अलावा दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद करने की लालसा में अभिवावक बच्चों पर ध्यान दे ही नहीं पा रहे हैं, जिससे बच्चे कब और कहां तक पहुंच जाते हैं, पता ही नहीं चलता और जब पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, ऐसी स्थिति में पहुंचने पर अंकुश लगाने का प्रयास किया जाता है, बच्चे विरोध करते हैं तो प्रतिष्ठा बड़ी नजर आती है और न चाहते हुए भी करना पड़ता है ऑनर किलिंग जैसा अपराध। ऑनर किलिंग जैसी स्थिति से बचने के लिए अभिवावकों को बच्चों पर बराबर ध्यान देना होगा।
उन्हें धर्म से जोडऩा होगा। ईश्वर में आस्था रखने वाला व्यक्ति पाप कर्म करने से किसी हद तक बचता है। कानून जिस अपराध को नहीं रोक सकता, उसे धर्म से जोड़ कर पाप कर्म घोषित किया गया था, जिसका अक्षरश: पालन कराना होगा, लेकिन दुर्भाग्य की ही बात कही जायेगी कि धर्मग्रन्थों के नाम से अभिवावकों के सिर में दर्द होता है तो वह अपने बच्चों को क्या और कैसे बतायेंगे? इस बात को नि:संकोच कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी होगी, जो धर्म ग्रन्थों को सालों खोल कर नहीं देख पाते होंगे। शहरी क्षेत्रों के परिवारों में तो ग्रन्थ होना भी बड़ी बात ही कही जायेगी। ऐसे धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक और पारिवारिक वातावरण में अगर कोई ऐसी कामना रखता है कि उनके बच्चे दो दशक पहले जैसा व्यवहार करें तो यह उसकी भूल ही कही जायेगी। इस लिए हालातों को देखते हुए दो ही विकल्प नजर आते हैं कि बच्चों को सुधारने से पहले स्वयं सुधरें और परिवार में धार्मिक वातारण पैदा करें, साथ ही प्रतिदिन कुछ समय बच्चों के साथ भी बितायें और यह सब नहीं कर पाते हैं तो स्वयं इक्कीसवीं सदी में आ जायें और जैसा आपके बच्चे सोचते हैं, वैसा ही सोचने लगें।