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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Wednesday 16 November 2011

काश! वह दिन फिर लौट आयें?

मां के दूध से ज्यादा पौष्टिक और मां की गोद से बड़ा दुलार आज तक दूसरा संज्ञान में नहीं आया है, लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि मां के दूध की जगह डिब्बे के दूध ने और गोद की जगह ट्रालीयुक्त पालनों ने ले ली है, जिससे ऐसी मां को मां कहने का अब कोई मतलब नहीं रह गया है, इसी लिए दूध व गोद से दूर होती मां के प्रति आस्था और श्रद्धा भी लगातार घट रही है।
भारतीय परंपरा के अनुसार महिलायें प्राचीन काल से ही स्वयं को कपड़ों में लपेट कर रखती आ रही हैं। किसी तरह अगर किसी महिला के शरीर के किसी अंग से कपड़ा हट भी जाता था, तो महिला बेहद शर्मिंदा हो उठती थी, लेकिन उसी महिला का बच्चा अगर भूख से विलखने लगता था, तो हजारों की भीड़ में भी वह महिला शर्मिंदगी को त्याग कर बच्चे को स्तनपान कराने लगती थी। ऐसे दृष्य सार्वजनिक स्थानों पर अक्सर दिखाई दे जाते थे। इतना ही नहीं देखने वाले के मन में भी ममत्व के ही भाव आते थे। ऐसे दृष्य को देख कर कोई अश्लीलता करार नहीं देता था, पर आज की मां को स्तनपान कराने में शर्म महसूस होने लगी है। हाई-प्रोफाइल या पढ़े-लिखे तबके की महिलाओं का मानना है कि स्तनपान कराने से उनका फिगर खराब हो सकता है जबकि ऐसा नहीं है। डाक्टर्स भी मानते हैं कि स्तनपान न कराने के कारण ही बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता घट रही है। मानसिक विकास भी नहीं हो पा रहा है एवं बच्चों की शारीरिक शक्ति में भी गिरावट आ रही है। जाहिर है, औसत आयू भी शायद, इसी लिए घटती जा रही है, पर इस समस्या को लेकर महिलायें बिल्कुल गंभीर नहीं दिख रहीं और न ही पढ़े-लिखे तबके की महिलायें इस तरह का जागरुता अभियान चलाती नज़र आ रही हैं जबकि स्वस्थ और बुद्धिमान समाज की स्थापना के लिए महिलाओं को इस मुददे पर जागरुक करना बेहद जरुरी है। इसी तरह बस अडडा, रेलवे जंक्शन, हवाई अडडा या फिर किसी भी सार्वजनिक स्थान पर ट्रालीयुक्त पालने में धकेले जा रहे अबोध बच्चे आम तौर पर दिखाई देने लगे हैं। यह भी एक बड़ी समस्या है क्योंकि शिशु को आनंद की जो अनुभूति मां की गोद में होती है, वह किसी अन्य की गोद में भी नहीं हो सकती, ऐसे में पालना तो उसे कष्ट ही देता होगा, पर आज की मां इस मुददे को लेकर भी गंभीर नहीं दिख रही हैं।
शिशु को गोद में न लेने की प्रवृत्ति हाई-प्रोफाइल या पढ़े-लिखे तबके में ही बढ़ी है। गोद लेने में भी महिलाओं को शर्म आने लगी है। गोद लेने की तो बात ही छोडिय़े बच्चों को अपने आस-पास रखने में भी आज की मां संकोच करने लगी है। इस मुददे पर पढ़ी-लिखी महिलाओं का तर्क होता है कि किसी समारोह आदि में सज-संवर कर जाओ तो बच्चे श्रंगार खराब कर देते हैं, साथ ही बच्चों के दूर रहने से लोग उम्र का अंदाजा भी नहीं लगा पाते। बच्चे आस-पास या गोद में ही हों तो कोई भी आसानी से अंदाजा लगा लेता है कि उम्र क्या रही होगी, इसके अलावा तर्क यह भी है कि बच्चे को सीने से चिपका कर रखने की पंरपरा गांव की बुद्धिहीन महिलाओं की होती है, ऐसे में अगर पढ़ी-लिखी महिला भी बच्चे को चिपका कर घूमे तो फिर उसके पढऩे-लिखने का मतलब क्या हुआ?
उक्त तर्क से संतुष्ट होने की बजाये हर कोई हैरान ही हो उठेगा क्योंकि स्तनपान कराने से बच्चे से ज्यादा मां को संतुष्टि मिलती थी और गोद में मुस्कराते बच्चे श्रंगार की ही तरह शोभा ही बढ़ाते दिखते थे। काश! वह दिन फिर लौट आयें।