चुनाव आयोग द्वारा विधान सभा चुनाव की तिथि घोषित करने के कारण नेताओं की धडक़नें बढ़ी नजर आ रही हैं। शीत ऋतु में भी प्रत्याशियों के माथे पर पसीने की बूंदे छलकती दिख रही हैं, क्योंकि जीत का जादुई आंकड़ा छूने में एक बार सफलता मिल गयी तो वह ग्रीष्म ऋतु की भयानक दोपहरी में भी हर सुख भोग लेंगे, इसीलिए प्रत्याशी रात और दिन का अंतर भूल कर पूरी शक्ति के साथ चुनाव मैदान में डटे नजर आ रहे हैं। खैर, फिलहाल प्रत्याशियों के साथ सभी दलों के बड़े नेताओं ने भी जीत का आंकड़ा छूने के लिए हर संभव प्रयास करने शुरू कर दिये हैं, पर आश्चर्य की बात यह है कि जनता में चुनाव को लेकर विशेष उत्सुकता नजर नहीं आ रही है। चुनाव की तिथि हर पल पास आती जा रही है, लेकिन अभी तक जनता सर्वश्रेष्ठ विकल्प तय नहीं कर पाई है। आम आदमी की मंशा देख कर यही लग रहा है कि वह अभी किसी एक के सिर पर ताज बांधने को लेकर असमंजस की स्थिति में ही है।
राष्ट्रीय स्तर के दलों की बात की जाये, तो मंहगाई और भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी की नजर में कांग्रेस की छवि बेहद खराब है, जिसे किसी कीमत पर वोट देने वाली नहीं है। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव द्वारा उठाये मुद्दे आम आदमी के लिए खास अहमियत नहीं रखते, पर वह कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार के कार्यकाल में बढ़ी मंहगाई को लेकर ही काफी त्रस्त और आक्रोशित है। अब भाजपा की बात करें, तो लंबे समय से सत्ता से बेदखल होने के कारण भाजपा नेता या कार्यकर्ता आम आदमी से काफी दूर जा चुके हैं। संगठन के नाम पर उत्तर प्रदेश में सिर्फ वीआईपी पदाधिकारी ही बचे हैं, जिनका आम आदमी से मिलना तक दुश्वार लगता है। भाजपा की इस दूरी के कारण ही आम आदमी भाजपा को भी विकल्प के रूप में दूर-दूर तक नहीं देख रहा, इसलिए मायावती सरकार की नीतियों और रीतियों से त्रस्त आम आदमी के सामने समाजवादी पार्टी के रूप में ही अंतिम विकल्प दिखाई दे रहा है, लेकिन प्रदेश के हालात देखते हुए यह भी स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी को भी स्पष्ट बहुमत मिलने वाला नहीं है, पर इतना निश्चित है कि समाजवादी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने उभर कर आने वाली है, क्योंकि विभिन्न मुद्दों को लेकर समाजवादी पार्टी समय-समय पर प्रांतीय स्तर पर आंदोलन करती रही है, साथ ही आम आदमी के साथ स्थानीय स्तर पर भी समस्याओं को उठाती रही है। पांच वर्ष के बसपा शासन में सपा मैदान छोड़ कर नहीं भागी और आम आदमी से जुड़ी रही, जिसका लाभ सपा को चुनाव में मिल सकता है। आयोग की कड़ाई के बावजूद उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म के आधार पर भी चुनाव प्रभावित होगा, पर कांग्रेस की किसी एक जाति या किसी भी धर्म से जुड़े लोगों के बीच खास पैठ नजर नहीं आ रही है। मुस्लिमों की ही बात करें, तो मुसलमान अभी कांग्रेस की ओर जाने के बारे में सोच भी नहीं रहे हैं। बसपा शासन में भी भ्रष्टाचार और मनमानी का ही बोलबाला रहा है, इसलिए बसपा से मुसलमान भी आक्रोशित नजर आ रहे हैं और भाजपा की ओर तो जा ही नहीं सकता, तभी मुस्लिमों के सामने भी एक मात्र विकल्प सपा ही नजर आ रहा है। हालांकि आजम खां की भी सपा में पुन: वापसी हो गयी है, पर उनकी वापसी का अधिक असर नहीं दिख रहा। उनके आने से सपा को इतना फायदा अवश्य हुआ है कि विरोधी दलों के मुस्लिम नेताओं के सपा पर होने वाले हमले बंद हो गये हैं, जिससे आम मुसलमान सपा के प्रति अब उदार नजर आ रहा है। सवर्णों की बात करें, तो किसी खास दल को लेकर एकमत नहीं दिख रहे, लेकिन बसपा के कुशासन से मुक्ति पाने के लिए सवर्णों को भी सपा ही बेहतर विकल्प नजर आ रहा है, जिनमें ठाकुर व वैश्य वर्ग की पहली पसंद सपा नजर आ रही है, पर अभी तक ब्राह्मण असमंजस में ही नजर आ रहे हैं। समाजवादी पार्टी को इस बात का भी लाभ मिलने वाला है कि उसने समय से अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये, जिससे प्रत्याशियों को जनता के बीच पैठ बनाने का भरपूर मौका मिल गया है।
चुनाव बाद की संभावित तस्वीर पर नजर डालें, तो समाजवादी पार्टी सवा सौ और डेढ़ सौ विधायकों के साथ प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी नजर आ रही है, लेकिन सरकार को लेकर उत्तर प्रदेश के हालात विकट नजर आ रहे हैं, क्योंकि सवा सौ के करीब विधायक बसपा के भी जीतने की संभावनायें व्यक्त की जा रही हैं, वहीं साठ के आस-पास भाजपा व पचास के इर्द-गिर्द कांग्रेस भी झपट सकती है और पन्द्रह-बीस विधायकों के साथ रालोद जैसे एक-दो अन्य दल भी अपना अस्तित्व बचाये रखने में कामयाब रह सकते हैं, इस सबके बीच आम आदमी के समझने की अहम् बात यह है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनाव में सबसे बुरी मानसिकता के साथ उतर रही है। कांग्रेस भी स्पष्ट जानती है कि उसे बहुमत नहीं मिलने वाला, इसलिए उसका उद्देश्य राजनीतिक अस्थिरता बनाये रखना ही है। कांग्रेस चाहती है कि किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत न मिले और उसके पचास से अधिक प्रत्याशी जीत जायें, ताकि दबाव बना कर वह अपना मुख्यमंत्री बनाने में सफल हो जाये। चुनाव बाद ऐसा हो भी जाये, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए।
खैर, कांग्रेस की इस रणनीति को विफल करने की शक्ति सिर्फ समाजवादी पार्टी के पास ही नजर आ रही है, पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सपा तटस्थ मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में कितनी सफल रहेगी? अगर सपा ने तटस्थ मतदाताओं को अपनी ओर झुका लिया तो वह जीत के आंकड़े के पास पहुंच सकती है, पर बसपा को कमजोर समझना भी राजनीतिक नासमझी ही कही जायेगी, क्योंकि बसपा का टिकट बदलने का क्रम अभी जारी है। बसपा के नये चेहरे तमाम राजनीतिक भविष्य वाणियों को फेल कर पुन: चौंका भी सकते हैं।
राष्ट्रीय स्तर के दलों की बात की जाये, तो मंहगाई और भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी की नजर में कांग्रेस की छवि बेहद खराब है, जिसे किसी कीमत पर वोट देने वाली नहीं है। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव द्वारा उठाये मुद्दे आम आदमी के लिए खास अहमियत नहीं रखते, पर वह कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार के कार्यकाल में बढ़ी मंहगाई को लेकर ही काफी त्रस्त और आक्रोशित है। अब भाजपा की बात करें, तो लंबे समय से सत्ता से बेदखल होने के कारण भाजपा नेता या कार्यकर्ता आम आदमी से काफी दूर जा चुके हैं। संगठन के नाम पर उत्तर प्रदेश में सिर्फ वीआईपी पदाधिकारी ही बचे हैं, जिनका आम आदमी से मिलना तक दुश्वार लगता है। भाजपा की इस दूरी के कारण ही आम आदमी भाजपा को भी विकल्प के रूप में दूर-दूर तक नहीं देख रहा, इसलिए मायावती सरकार की नीतियों और रीतियों से त्रस्त आम आदमी के सामने समाजवादी पार्टी के रूप में ही अंतिम विकल्प दिखाई दे रहा है, लेकिन प्रदेश के हालात देखते हुए यह भी स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी को भी स्पष्ट बहुमत मिलने वाला नहीं है, पर इतना निश्चित है कि समाजवादी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने उभर कर आने वाली है, क्योंकि विभिन्न मुद्दों को लेकर समाजवादी पार्टी समय-समय पर प्रांतीय स्तर पर आंदोलन करती रही है, साथ ही आम आदमी के साथ स्थानीय स्तर पर भी समस्याओं को उठाती रही है। पांच वर्ष के बसपा शासन में सपा मैदान छोड़ कर नहीं भागी और आम आदमी से जुड़ी रही, जिसका लाभ सपा को चुनाव में मिल सकता है। आयोग की कड़ाई के बावजूद उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म के आधार पर भी चुनाव प्रभावित होगा, पर कांग्रेस की किसी एक जाति या किसी भी धर्म से जुड़े लोगों के बीच खास पैठ नजर नहीं आ रही है। मुस्लिमों की ही बात करें, तो मुसलमान अभी कांग्रेस की ओर जाने के बारे में सोच भी नहीं रहे हैं। बसपा शासन में भी भ्रष्टाचार और मनमानी का ही बोलबाला रहा है, इसलिए बसपा से मुसलमान भी आक्रोशित नजर आ रहे हैं और भाजपा की ओर तो जा ही नहीं सकता, तभी मुस्लिमों के सामने भी एक मात्र विकल्प सपा ही नजर आ रहा है। हालांकि आजम खां की भी सपा में पुन: वापसी हो गयी है, पर उनकी वापसी का अधिक असर नहीं दिख रहा। उनके आने से सपा को इतना फायदा अवश्य हुआ है कि विरोधी दलों के मुस्लिम नेताओं के सपा पर होने वाले हमले बंद हो गये हैं, जिससे आम मुसलमान सपा के प्रति अब उदार नजर आ रहा है। सवर्णों की बात करें, तो किसी खास दल को लेकर एकमत नहीं दिख रहे, लेकिन बसपा के कुशासन से मुक्ति पाने के लिए सवर्णों को भी सपा ही बेहतर विकल्प नजर आ रहा है, जिनमें ठाकुर व वैश्य वर्ग की पहली पसंद सपा नजर आ रही है, पर अभी तक ब्राह्मण असमंजस में ही नजर आ रहे हैं। समाजवादी पार्टी को इस बात का भी लाभ मिलने वाला है कि उसने समय से अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये, जिससे प्रत्याशियों को जनता के बीच पैठ बनाने का भरपूर मौका मिल गया है।
चुनाव बाद की संभावित तस्वीर पर नजर डालें, तो समाजवादी पार्टी सवा सौ और डेढ़ सौ विधायकों के साथ प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी नजर आ रही है, लेकिन सरकार को लेकर उत्तर प्रदेश के हालात विकट नजर आ रहे हैं, क्योंकि सवा सौ के करीब विधायक बसपा के भी जीतने की संभावनायें व्यक्त की जा रही हैं, वहीं साठ के आस-पास भाजपा व पचास के इर्द-गिर्द कांग्रेस भी झपट सकती है और पन्द्रह-बीस विधायकों के साथ रालोद जैसे एक-दो अन्य दल भी अपना अस्तित्व बचाये रखने में कामयाब रह सकते हैं, इस सबके बीच आम आदमी के समझने की अहम् बात यह है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनाव में सबसे बुरी मानसिकता के साथ उतर रही है। कांग्रेस भी स्पष्ट जानती है कि उसे बहुमत नहीं मिलने वाला, इसलिए उसका उद्देश्य राजनीतिक अस्थिरता बनाये रखना ही है। कांग्रेस चाहती है कि किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत न मिले और उसके पचास से अधिक प्रत्याशी जीत जायें, ताकि दबाव बना कर वह अपना मुख्यमंत्री बनाने में सफल हो जाये। चुनाव बाद ऐसा हो भी जाये, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए।
खैर, कांग्रेस की इस रणनीति को विफल करने की शक्ति सिर्फ समाजवादी पार्टी के पास ही नजर आ रही है, पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सपा तटस्थ मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में कितनी सफल रहेगी? अगर सपा ने तटस्थ मतदाताओं को अपनी ओर झुका लिया तो वह जीत के आंकड़े के पास पहुंच सकती है, पर बसपा को कमजोर समझना भी राजनीतिक नासमझी ही कही जायेगी, क्योंकि बसपा का टिकट बदलने का क्रम अभी जारी है। बसपा के नये चेहरे तमाम राजनीतिक भविष्य वाणियों को फेल कर पुन: चौंका भी सकते हैं।