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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Saturday 31 December 2011

नेता खेल रहे शह मात का खेल, पर समर्थक क्या करें?

राजनीति में कार्यकर्ताओं, समर्थकों या शुभचिंतकों की आस्था, श्रद्धा या भावनाओं का अब कोई मोल नहीं रह गया है। बस, सत्ता चाहिए और वो भी किसी भी कीमत पर। सत्ता के लिए राजनेता मछली की तरह तड़पते नजर आ रहे हैं, तभी हर सिद्धांत को दरकिनार कर कुछ भी करने को तत्पर हैं। प्रसंग फिलहाल समाजवादी पार्टी और डीपी यादव के बारे में है, क्योंकि डीपी यादव के समाजवादी पार्टी में आने की खबर से अधिकांश लोग स्तब्ध हैं।
सभी जानते हैं कि डीपी यादव को समाजवादी पार्टी ने ही राजनीति के क्षितिज पर बैठाया था। मुलायम सिंह यादव ने उन्हें वर्ष 1991 में पंचायती राज मंत्री बनाया, पर डीपी यादव जनसेवक कम, नेता अधिक रहे हैं और अधिकांश चुनाव ग्लैमर में ही जीते हैं, जिससे जनता के बीच पैठ आज तक नहीं बना पाये। खैर, यह मुद्दा अलग है। फिलहाल प्रमुख विषय है कि वर्ष 2००० के लोकसभा चुनाव में डीपी यादव ने सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के विरुद्ध ही संभल लोकसभा क्षेत्र से बिगुल फूंक दिया था। राज्यपाल रोमेश भंडारी की मदद से जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना कर किसी तरह सपा मुखिया यह चुनाव जीते थे, इसके बाद वर्ष 2००5 के लोकसभा चुनाव में संभल लोकसभा क्षेत्र से ही सपा प्रत्याशी व सपा के थिंक टैंक कहे जाने वाले प्रो. रामगोपाल यादव के विरुद्ध भी डीपी यादव ने ताल ठोंक कर खुली चुनौती दी। इस चुनाव में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता रंजिश में बदलती नजर आई। डीपी यादव के विरुद्ध कई मुकदमे लिखाये गये। उनके फार्म हाउस पर पुलिस द्वारा दबिश दी गयी, तब प्रो. रामगोपाल यादव विजयी घोषित हुए। इसके बाद हुए विधान सभा चुनाव में डीपी यादव स्वयं सहसवान क्षेत्र से और उनकी पत्नी उमलेश यादव बिसौली विधान सभा क्षेत्र से अपने राष्ट्रीय परिवर्तन दल के बैनर से विजयी घोषित किये गये। इस चुनाव में उन्हें इस बात का ही अधिक लाभ हुआ कि लोकसभा चुनाव में उन पर बेवजह मुकदमे ठोंके गये। उस शोषण के कारण ही जनता को डीपी से हमदर्दी हो गयी थी। बाद में बसपा सरकार बनने पर उन्होंने रापद का बसपा में विलय कर दिया, जिससे उनके समर्थक यह सोच कर खुश हुए कि सत्ता के साथ आने के कारण क्षेत्र का विकास होगा, पर विकास जो हुआ, सो हुआ, उससे अधिक डीपी यादव ने स्वहित ही अधिक सिद्ध किये। डीपी यादव सही थे या गलत, इसकी समीक्षा करने का समय अब आ रहा था।
खैर, डीपी का सपा के विरोध में चल रहा उनका अभियान अभी शांत नहीं हुआ, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने बसपा के टिकट पर सपा मुखिया के भतीजे धर्मेन्द्र यादव के विरुद्ध भी खुद को मैदान में उतार दिया था। कांटे की टक्कर के बीच जीत धर्मेन्द्र यादव की ही हुई, इसके अलावा पिछले एमएलएसी चुनाव में मिनी मुख्यमंत्री कहे जाने वाले पूर्व राज्यमंत्री व बदायूं के सपा जिलाध्यक्ष बनवारी सिंह यादव को सत्ता के सहारे बुरी तरह हराया था और जो कसर बाकी थी, वह जिला पंचायत चुनाव में साले की पत्नी पूनम यादव को अध्यक्ष बनवा कर पूरी कर ली। एक दौर था, जब सभी विधायकों के साथ एमएलसी, जिला पंचायत अध्यक्ष और अधिकांश ब्लाक प्रमुख सपा के ही समर्थक थे, पर एक छत्र राज को डीपी ने ध्वस्त कर दिया, जिससे अभी तो यही लग रहा है कि डीपी की शक्ति से सपा घबरा गयी है या फिर डीपी को साथ लेकर अपना एक राजनीतिक विरोधी खत्म करना चाहती है।
अंदर की बात जो भी हो, पर यह सच है कि बिसौली, गुन्नौर और सहसवान क्षेत्र के अधिकांश मतदाता दो गुटों में बंटे हैं। एक गुट की आस्था समाजवादी पार्टी में है, तो दूसरा गुट सपा मुखिया से टकराने वाले डीपी यादव के साथ रहा है। डीपी के बसपा में आने के बाद सपा समर्थकों ने पांच वर्ष का शासन जैसे-तैसे गुजारा था और चुनाव का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, पर खबर है कि डीपी यादव भी साईकिल पर सवार हो रहे हैं, ऐसे में सपा के उन सिपाहियों को आघात लगना स्वभाविक ही है, पर बेचारे सपा समर्थकों को यह पता ही नहीं है कि युद्ध भावनाओं से नहीं लड़े जाते, इसलिए जो भावुक हैं, उनके साथ कैसी हमदर्दी?


संग देने वाले बुरे, पर डीपी भले
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बदायूं क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लडऩे से पहले ही धर्मेन्द्र यादव ने वरिष्ठ सपा नेता नरेश प्रताप सिंह के आवास को अपना आशियाना बनाया था और जीतने के बाद भी उसी में रहे, लेकिन जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में उनकी पत्नी चेतना सिंह पर आरोप लगा कि उन्होंने डीपी यादव से समझौता कर पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं का निरादर किया है। चुनाव परिणाम आते ही धर्मेन्द्र यादव का नाम नरेश प्रताप सिंह वाले आवास से मिटा दिया गया, साथ ही दंपति को पार्टी से भी निकाल दिया गया। हालांकि बाद में उनकी सपा में वापसी तो हो गयी, पर धर्मेन्द्र यादव उस आवास पर फिर नहीं गये। अब सवाल उठता है कि डीपी का संग देने से नरेश प्रताप सिंह और चेतना सिंह बुरे हो गये थे तो खुद डीपी कैसे भले हो गये?         


सवाल: बनवारी, आबिद और डीपी कैसे बैठेंगे संग?
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डीपी यादव की राजनैतिक प्रतिद्वंदता सीधे सपा मुखिया से ही रही है, पर बदायूं में पूर्व राज्यमंत्री व जिलाध्यक्ष बनवारी सिंह यादव ने नेताजी के सम्मान के लिए डीपी से कभी रुख नहीं मिलाया। डीपी तो सपा मुखिया से ही भिड़े थे, इसलिए उनका बाकी सपा नेताओं से मेल होने का सवाल ही नहीं उठता। अब सवाल यह भी उठ रहा है कि डीपी के सपा में आने से बनवारी सिंह यादव के सम्मान का क्या होगा या सरकार आ गयी तो क्या सपा का दरबार दो जगह लगा करेगा? 
उधर बदायूं विधान सभा क्षेत्र के सपा प्रत्याशी आबिद रजा भी गत लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े डीपी यादव के साथ थे और उन्होंने ईमानदारी से चुनाव लड़ाया भी, पर चुनाव बाद उन पर डीपी का संग न देने का आरोप लगा, जिससे उन्हें बसपा ने आउट कर दिया था। ऐसे में डीपी यादव भी सपा में आने वाले हैं, जिससे एक सवाल यह भी उठ रहा है कि आबिद रजा और डीपी के मन कैसे मिलेंगे, साथ ही सपा मुखिया के खास बनवारी सिंह यादव, आजम खां के खास आबिद रजा और डीपी यादव के तीन दरबार लगा करेंगे?