भयमुक्त वातावरण में पारदर्शी चुनाव कराने के लिए भारत निर्वाचन आयोग हर संभव प्रयास करता नजर आ रहा है, पर राजनेता आयोग की मंशा के ठीक विपरीत कार्य करते दिख रहे हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि भ्रष्टाचार और मनमानी को लेकर बसपा को लगातार कोसने वाले राजनेता बसपा के ही बर्खास्त दागियों के कंधों पर सवार होकर सत्ता पाने का ख्वाब देख रहे हैं, जिससे समीकरण लगातार बदलते नजर आ रहे हैं। पांच वर्षों तक मनमानी कर जनता की आंखों में कसकती नजर आ रही बसपा अन्य दलों के मुकाबले जनता को फिर भाने लगी है।
बात सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की करें, तो भाजपा के नेता सिद्धांत और नैतिकता की दलीलें देते हुए थकते नहीं हैं। टिकट देते समय भाजपा दावा करती है कि वह लीक से हट कर टिकट नहीं देती। आम कार्यकर्ताओं की राय पर टिकट देती है। जनपद और प्रदेश स्तर पर व्यापक मंथन किया जाता है कि आवेदक आम जनता से जुड़ा है या नहीं। यह भी दावा किया जाता है कि आवेदक विकास को गति देने के साथ स्वच्छ छवि वाला है या नहीं। वर्तमान चुनाव को देखा जाये, तो इस बार राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कई गोपनीय सर्वेक्षण कराये, जिसको लेकर दावा किया जा रहा था कि इस बार भाजपा कर्मठ कार्यकर्ताओं को टिकट देकर पुरानी छवि बहाल करने का प्रयास करेगी, पर चुनाव पूर्व ही सब दावों की हवा निकल गयी है। भाजपा को उत्तर प्रदेश में संघर्ष करने लायक भी प्रत्याशी नहीं मिल रहे हैं, तभी सिद्धांत और नैतिकता उठा कर रख दिये हैं। बसपा की मायावती सरकार जिन लोगों को लेकर सबसे अधिक बदनाम हुई, उन लोगों को बसपा ने दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका, पर भाजपा उसी मक्खी को चाटती नजर आ रही है और बेशर्मी की हद पार करते हुए दलील दे रही है कि भाजपा वह गंगा है, जिसमें नालों का पानी भी गंगाजल बन जाता है। कांग्रेस की बात करें, तो उसके भी कपड़े उतरे नजर आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश की सत्ता हथियाने के लिए कांग्रेस भी इस कदर उतावली नजर आ रही है कि वह भी बसपा, भाजपा या सपा के ठुकराये दागियों को पलकों पर बैठाती नजर आ रही है, जबकि कांग्रेस भी कर्मठ कार्यकर्ताओं को ही टिकट देने का दावा करती है। निष्ठावान वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को हाशिये पर धकेलने वाली कांग्रेस के दावे फिलहाल झूठे ही नजर आ रहे हैं। समाजवादी पार्टी की बात करें, तो दागियों और दल-बदलुओं से उसे भी परहेज नहीं है। सत्ता के संघर्ष में सपा का समाजवाद का नारा कम ही सुनाई दे रहा है, जबकि पांच वर्षों तक सबसे अधिक सपा ने ही बसपा को कोसा है। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह सिर्फ सत्ता की ही राजनीति करते हैं, तभी वह ऐसे दावे करते ही नहीं हैं, इसलिए उन पर प्रश्र चिन्ह भी नहीं लगाया जा सकता, ऐसे में भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा के बीच ही तुलना की जा सकती है। तमाम खामियों के बाद भी बसपा इन सबसे बेहतर नजर आ रही है। हालांकि दागी बसपा में भी नजर आ रहे हैं, लेकिन पार्टी में कुछ भी करने का अधिकार सिर्फ बसपा सुप्रीमो मायावती के पास ही है, तभी जनमानस के बीच साख गवां चुके लोगों से बसपा ने किनारा कर लिया है, पर भाजपा, सपा और कांग्रेस उन्हें गले लगा रही हैं। सत्ता की जंग में राजनैतिक दल अभी इस ओर सोच ही नहीं पा रहे हैं, लेकिन यह मुद्दा गंभीर है और जनता के बीच चर्चा का प्रमुख विषय बना हुआ है, इसलिए चुनाव परिणाम प्रभावित होना स्वभाविक ही है।
बात सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की करें, तो भाजपा के नेता सिद्धांत और नैतिकता की दलीलें देते हुए थकते नहीं हैं। टिकट देते समय भाजपा दावा करती है कि वह लीक से हट कर टिकट नहीं देती। आम कार्यकर्ताओं की राय पर टिकट देती है। जनपद और प्रदेश स्तर पर व्यापक मंथन किया जाता है कि आवेदक आम जनता से जुड़ा है या नहीं। यह भी दावा किया जाता है कि आवेदक विकास को गति देने के साथ स्वच्छ छवि वाला है या नहीं। वर्तमान चुनाव को देखा जाये, तो इस बार राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कई गोपनीय सर्वेक्षण कराये, जिसको लेकर दावा किया जा रहा था कि इस बार भाजपा कर्मठ कार्यकर्ताओं को टिकट देकर पुरानी छवि बहाल करने का प्रयास करेगी, पर चुनाव पूर्व ही सब दावों की हवा निकल गयी है। भाजपा को उत्तर प्रदेश में संघर्ष करने लायक भी प्रत्याशी नहीं मिल रहे हैं, तभी सिद्धांत और नैतिकता उठा कर रख दिये हैं। बसपा की मायावती सरकार जिन लोगों को लेकर सबसे अधिक बदनाम हुई, उन लोगों को बसपा ने दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका, पर भाजपा उसी मक्खी को चाटती नजर आ रही है और बेशर्मी की हद पार करते हुए दलील दे रही है कि भाजपा वह गंगा है, जिसमें नालों का पानी भी गंगाजल बन जाता है। कांग्रेस की बात करें, तो उसके भी कपड़े उतरे नजर आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश की सत्ता हथियाने के लिए कांग्रेस भी इस कदर उतावली नजर आ रही है कि वह भी बसपा, भाजपा या सपा के ठुकराये दागियों को पलकों पर बैठाती नजर आ रही है, जबकि कांग्रेस भी कर्मठ कार्यकर्ताओं को ही टिकट देने का दावा करती है। निष्ठावान वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को हाशिये पर धकेलने वाली कांग्रेस के दावे फिलहाल झूठे ही नजर आ रहे हैं। समाजवादी पार्टी की बात करें, तो दागियों और दल-बदलुओं से उसे भी परहेज नहीं है। सत्ता के संघर्ष में सपा का समाजवाद का नारा कम ही सुनाई दे रहा है, जबकि पांच वर्षों तक सबसे अधिक सपा ने ही बसपा को कोसा है। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह सिर्फ सत्ता की ही राजनीति करते हैं, तभी वह ऐसे दावे करते ही नहीं हैं, इसलिए उन पर प्रश्र चिन्ह भी नहीं लगाया जा सकता, ऐसे में भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा के बीच ही तुलना की जा सकती है। तमाम खामियों के बाद भी बसपा इन सबसे बेहतर नजर आ रही है। हालांकि दागी बसपा में भी नजर आ रहे हैं, लेकिन पार्टी में कुछ भी करने का अधिकार सिर्फ बसपा सुप्रीमो मायावती के पास ही है, तभी जनमानस के बीच साख गवां चुके लोगों से बसपा ने किनारा कर लिया है, पर भाजपा, सपा और कांग्रेस उन्हें गले लगा रही हैं। सत्ता की जंग में राजनैतिक दल अभी इस ओर सोच ही नहीं पा रहे हैं, लेकिन यह मुद्दा गंभीर है और जनता के बीच चर्चा का प्रमुख विषय बना हुआ है, इसलिए चुनाव परिणाम प्रभावित होना स्वभाविक ही है।