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Friday, 6 January 2012

चुनाव है या सत्ता हथियाने का युद्ध

चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों द्वारा जारी किये जाने वाले घोषणा पत्रों की मतदाता बाट जोहते नजर आते थे। विभिन्न राजनैतिक दलों के घोषणा पत्रों को लेकर तिराहों, चौराहों और चौपालों पर गंभीरता पूर्वक चर्चा के साथ तीखी बहस होती थी। घोषणा पत्र के बारे में प्रत्याशी भी प्रमुख तौर पर बात करते देखे जा सकते थे, जिससे जनहित की बात करने वाले दल के प्रत्याशियों पक्ष में लोगों की विचारधारायें बदल जाया करती थीं, लेकिन इस बार के चुनाव से घोषणा पत्र और घोषणा पत्रों की चर्चा पूरी तरह गायब दिखाई दे रही है।
गुजरे दशक में चुनाव के दौरान घोषणा पत्रों का महत्वपूर्ण स्थान रहता था। राजनैतिक दलों के शीर्ष नेता पूरी आन, बान और शान के साथ घोषणा पत्र जारी करते थे। घोषणा पत्र में जनहित से संबंधित मुद्दों को लेकर राजनैतिक दलों में प्रतिद्वंदिता भी रहती थी, तभी राजनैतिक एक-दूसरे का घोषणा पत्र जारी होने का इंतजार करते थे और हर संभव प्रयास करते थे कि घोषणा पत्र में कुछ छूट न जाये। सभी राजनैतिक दलों के विद्वान नेता मिल कर घोषणा पत्र को तैयार करते थे। घोषणा पत्र जारी होने के बाद संबंधित दलों के प्रत्याशी प्रचार के दौरान प्रमुख रूप से घोषणा पत्र की ही चर्चा करते थे। प्रत्याशी दूसरे दलों के घोषणा पत्रों की समीक्षा करते हुए अपने घोषणा पत्र को श्रेष्ठ दर्शाने का भरपूर प्रयास करते नजर आते थे। घोषणा पत्र से संबंधित प्रत्याशियों की दलीलों का मतदाताओं पर अनूकूल या प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता था, साथ ही राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता जनसभाओं के साथ प्रचार के दौरान गांव-गांव घोषणा पत्रों की प्रतियां बांट कर स्वयं के दल को जनहितकारी सिद्ध करने का प्रयास करते थे। घोषणा पत्रों को मतदाता चाव पूर्वक पढ़ते भी देखे जा सकते थे, साथ ही विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा जारी किये गये घोषणा पत्रों की समीक्षा कर वोट देने का निर्णय लेते थे, इसी तरह अखबार भी राजनैतिक दलों के घोषणा पत्रों की खबर प्रमुखता से प्रकाशित कर समीक्षा करते थे, पर अब घोषणा पत्रों की अहमियत घटती नजर आ रही है। राजनेताओं और प्रत्याशियों के साथ आम जनता भी घोषणा पत्रों की चर्चा तक नहीं कर ही है।
राजनैतिक दलों के शीर्ष नेता आम जनता से जुड़े मुद्दों की बात करने की जगह एक-दूसरे की कमियां ही उजागर करते नजर आ रहे हैं। अपने दल की भावी योजनाओं की या अपने गुणों की चर्चा करने की जगह विरोधी नेता पर व्यक्तिगत आरोप मढ़ते नजर आ रहे हैं। चुनाव से घोषणायें या मुद्दे पूरी तरह गायब हैं। जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद, परिवारवाद और दबंगई के साथ धन के बल पर सत्ता हथियाने का युद्ध नजर आ रहा है चुनाव। गुजरे दौर में प्रत्याशी गांव-गांव और घर-घर जाकर हाथ जोड़ कर व बुजुर्गों से आशीर्वाद लेते हुए वोट मांगते नजर आते थे, पर इस बार अधिकांश प्रत्याशी लग्जरी गाडिय़ों में घूमते दिख रहे हैं, जो गांव के किसी एक स्थान पर खड़े होकर अपनी गाड़ी पर ही लगे लाउड स्पीकर से वोट देने की अपील कर अगले गांव की ओर निकल जाते हैं, क्योंकि वोट डलबाने का मूल काम कार्यकर्ता रूपी उनके कारिंदों को ही कराना है। अधिकांश राजनैतिक दलों या अधिकांश प्रत्याशियों की मंशा किसी भी तरह सत्ता हथियाने की ही नजर आ रही है, जिससे चुनाव पूर्व ही सिद्ध हो रहा है कि सत्ता किसी के हाथ में आये, पर आम आदमी के हित में काम करना तो दूर, कोई सोचेगा तक नहीं।