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Monday, 9 January 2012

अधिकारों का दुरुपयोग करने से बचे चुनाव आयोग

चुनाव आयोग का प्रथम दायित्व है कि वह भयमुक्त वातावरण में शांति पूर्वक चुनाव कराये। चुनाव के दौरान ऐसी व्यवस्था कराये कि मतदाताओं के मन पर किसी भी तरह का दबाव न हो, ताकि मतदाता स्वच्छ और ईमानदार छवि का जनप्रतिनिधि चुन सकें। आयोग ऐसे निर्णय लेता भी नजर आ रहा है, जिसकी जनमानस में प्रशंसा हो रही है, पर कभी-कभी आयोग अति करता नजर आता है। आयोग के किसी-किसी निर्णय से लगता है कि सनक के चलते अपने अधिकारों का दायरा पार कर रहा है, जिसकी आलोचना होना स्वभाविक ही है। हालांकि आयोग की मंशा साफ ही नजर आ रही है, पर अब तक के कुछ निर्णयों पर नजर डाली जाये तो एक-दो निर्णय गैर जरूरी नजर आ रहे हैं।
आयोग की कड़ाई का ही परिणाम है कि गरिमामयी पत्रकारिता को कलंकित करने वाले भी दहशत में नजर आ रहे हैं, जिससे एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रख रहे हैं। पेड न्यूज के मामले में दोषी पाये जाने पर बिसौली विधान सभा क्षेत्र की विधायक उमलेश यादव की सदस्यता नहीं गई होती तो मीडिया या प्रत्याशियों पर अंकुश लगा पाना आयोग के लिए आसान काम नहीं होता। चुनाव के दौरान सही और गलत की पहचान कराने की जगह मीडिया भी वास्तव में अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने लगा था, जिस पर अंकुश लगा कर आयोग ने वाकई सराहनीय कार्य किया है। इसी तरह चुनाव के दौरान एक लाख से अधिक नकदी ले जाने का कारण बताने का भी निर्णय स्वागत योग्य है, इससे धन के दुरुपयोग की संभावनायें बेहद कम हो गयी हैं, जिससे धनबलि प्रत्याशियों के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही हैं, लेकिन आयोग के इस निर्णय का पुलिस दुरुपयोग करती नजर आ रही है। तमाम स्थानों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि पुलिस तीस, चालीस और पचास हजार रुपये भी छीन रही है, जिससे छोटे व्यापारियों के साथ किसानों को भी परेशानी हो रही है, क्योंकि कानूनी अड़चनों के चलते लोगों को तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, इसलिए ऐसी घटनाओं पर सख्ती से रोक लगाने का भी प्रबंध होना चाहिए। इस सबके बीच आयोग ने पार्कों में लगी मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढकने का आदेश जारी कर दिया। यह आदेश जनहित में लिया गया निर्णय कम आयोग के अधिकारियों की सनक अधिक लग रहा है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं पर चुनाव के दौरान इन मूर्तियों का कोई असर नहीं होने वाला, साथ ही उत्तर प्रदेश के मतदाता मूर्तियों को नकारात्मक दृष्टि से ही देख रहे थे, पर आयोग के मूर्तियों को ढकने के निर्णय से मूर्तियों की प्रमुखता से चर्चा होने लगी है, जिससे बसपा का और अधिक प्रचार ही हो रहा है।
इसके अलावा पार्कों और मूर्तियों का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट तक भी जा चुका है, जिसकी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि सरकार का विधि पूर्वक लिया गया निर्णय है, जिस पर रोक लगाना उचित नहीं है, लेकिन आयोग के मूर्तियों को ढकने के निर्णय से लग रहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट से भी बड़े निर्णय ले रहा है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट नहीं गया, पर आयोग विधि के विरुद्ध जा रहा है। कुल मिला कर आयोग मूर्तियों को ढकने का निर्णय लेने से बच सकता था और बचना ही सही रहता, लेकिन आयोग के इस निर्णय से गंभीरता की जगह सनक ही अधिक उजागर हो रही है।
इसी तरह बारावफात के चलते प्रथम चरण का चुनाव हटाने का निर्णय सही है, पर रविवार को चुनाव हटाने का निर्णय लेना और सोमवार को तिथि घोषित करना समझ नहीं आ रहा। सबसे पहले तो यही कि चुनाव का कार्यक्रम घोषित करते समय बारावफात का ध्यान क्यूं नहीं रखा गया? इसे आयोग की भूल माना जा सकता है। आयोग के अनुसार राजनैतिक दलों की आपत्ति पर तिथि में परिवर्तन करना आवश्यक ही था, तो रविवार को ही या रविवार की जगह सोमवार को चुनाव हटाने के साथ नई तिथि की भी घोषणा करनी चाहिये थी, पर आयोग ने ऐसा नहीं किया, जिससे साफ है कि आयोग के अधिकारियों को भी ग्लैमर भा रहा है। आयोग के अधिकारियों की मंशा पर सवाल बेवजह नहीं उठ रहा है, क्योंकि रविवार को प्रथम चरण का चुनाव हटाने के निर्णय ने उन्हें चर्चा में ला दिया और अगले दिन नई तिथि की घोषणा करते समय देश की मीडिया की नजर उन पर ही रही।
खैर, आयोग के अधिकारियों को अधिकारों का सदुपयोग करते हुए भयमुक्त वातावरण में शांति पूर्वक चुनाव कराने पर ही गंभीरता से ध्यान देना चाहिए, क्योंकि सनक और ग्लैमर के चलते मूल काम से वह भटक सकते हैं और अगर चुनाव में आंशिक तौर पर भी लापरवाही हो गयी, तो फिर उसके बाकी सभी निर्णय व्यर्थ ही साबित होंगे।