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Thursday, 12 January 2012

डंडागीरी की जगह गांधीगीरी करे पुलिस

अच्छाई के साथ बुराई और बुराई के साथ अच्छाई भी चलती है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, इसलिए किसी भी तरह के अच्छे या बुरे कार्य के परिणाम दोनों ही तरह के आते हैं, लेकिन ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी कार्य से मानवता या प्रकृति का नुकसान तो नहीं हो रहा है। अगर मानवता या प्रकृति को लाभ पहुंच रहा है, तो फिर अन्य किसी बात पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए। 
प्रसंग अचानक सक्रिय दिख रही उत्तर प्रदेश की पुलिस को लेकर है। समूचे प्रदेश से खबरें आ रही हैं कि यातायात के नियमों का पालन कराने के लिए पुलिस सामान्य तौर पर डंडा चला रही है, जाम की समस्या से नागरिकों को मुक्त कराने के लिए अतिक्रमणकारियों पर शक्ति का प्रयोग कर रही है। इसी तरह छोटे-मोटे अन्य मामलों में भी पुलिस बात करने की जगह डंडा ही अधिक चला रही है। शक्ति का प्रयोग बेहद आवश्यक माना जाता है, पर उत्तर प्रदेश की अधिकांश घटनाओं को देख कर लग रहा है कि पुलिस यह सब सनक में कर रही है। ग्लैमर भी कहा जा सकता है, साथ ही नेताओं के दबाओं से मुक्त हुई पुलिस की खीज भी कही जा सकती है, जो भी हो, पर इस सबके पीछे बेचारे आम आदमी की क्या गलती है?
गहन सोच-विचार के बाद भी आम आदमी की कमी दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही, पर जाने-अनजाने उसी के स्वाभिमान से खिलबाड़ हो रहा है। हालांकि सडक़ों या शहरों के हालात देख कर नहीं लगता कि प्रदेश में कानून का कोई राज है। चारों ओर अफरा-तफरी का ही वातावरण नजर आता है, जिससे तमाम तरह की अन्य समस्यायें जन्म लेती रहती हैं, पर यह सब एक दिन में नहीं हुआ हैं। ऐसा लंबे समय से होता आ रहा है, जिसमें रहने की लोगों को अब आदत पड़ गयी है। अधिकांश लोगों की वैसी ही दिनचर्या बन गयी है, लेकिन इस सबके लिए आम आदमी दोषी नहीं कहे जा सकते, क्योंकि उन्हें पहले ही दिन गलती का अहसास करा दिया जाता और न मानने पर शक्ति का भय दिखा दिया गया होता या आंशिक तौर पर लगातार कार्रवाई होती रही होती, तो सडक़ों या शहरों के हालात ऐसे नहीं होते, जैसे आज दिख रहे हैं।
नीयत स्थान पर कूड़ा न डालना, दोपहिया चलाते समय हेलमेट का प्रयोग न करना, चार पहिया चलाते समय सीट बेल्ट न लगाना, बस-टे्रन या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान करना, छोटे-छोटे दुकानदारों द्वारा दुकान के सामने सामान रख लेना, फल-खोमचों के सडक़ किनारे ठेले खड़ा करना आदि। यह सब अपराध की श्रेणी में नहीं आता, पर उत्तर प्रदेश की पुलिस इस सबको आज कल आपराधिक घटनाओं की तरह ही देखती नजर आ रही है, जिससे पुलिस की छवि खराब होनी स्वभाविक ही है। इस तरह के अधिकांश मामलों में जुर्माने का प्रावधान है, पर पुलिस के पास ऐसी रसीद नहीं होती, वरना एक बार जुर्माना देने वाला व्यक्ति उस नियम का पालन करने के लिए प्रेरित होता रहेगा, लेकिन पिटने के बाद उसका ध्यान नियम के उल्लंघन की ओर जाता ही नहीं है, क्योंकि पुलिस की मारने वाली छवि बन चुकी है, जिससे नियम तोडऩे वाला व्यक्ति यही सोचता है कि सामने आ गया है, इसलिए पिट गया। इसके अलावा यह सब नैतिक कार्यों की श्रेणी में आते हैं। नैतिक शिक्षा शिशु अवस्था में ही मां से मिलती है। मां के बाद गुरू से और दोनों से मिली शिक्षा को बच्चा समाज में रह कर अनुभव के आधार पर परखता है, पर यह दु:ख की ही बात कही जायेगी कि आज कल नैतिक शिक्षा की ओर मां के साथ गुरूओं का भी ध्यान नहीं है, ऐसे में पूरा समाज श्रेष्ठ कैसे हो सकता है?
खैर, चुनाव आचार संहिता के चलते मानसिक तौर पर स्वतंत्र हुई पुलिस वर्षों पुरानी आदत को पल भर में बदलने का प्रयास करती नजर आ रही है। हालांकि अधिकांश मामलों में पुलिस की नीयत भी साफ नजर आ रही है। वह आम आदमी के हित में ही काम कर रही है, पर वह भूल रही है कि कहीं न कहीं आम आदमी के स्वाभिमान से ही खिलबाड़ कर रही है, जिसकी इजाजत लोकतंत्र में किसी कीमत पर नहीं दी जा सकती, इसलिए पुलिस को डंडागीरी की जगह गांधीगीरी से काम चलाना होगा, वरना बेहतर कार्य करने पर भी उसे दोषी करार दिया जाता रहेगा, जिससे पुलिस का मनोबल ही गिरेगा और अगर पुलिस का मनोबल गिरा, तो नुकसान आम आदमी का ही होगा।