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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Tuesday, 17 January 2012

आपकी नजरों में क्यूं गिरना चाहेगा संपादक?

दुनिया हर क्षेत्र में तेजी से बदल रही है। परिवर्तन के इस दौर में मीडिया की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो जानी चाहिए, पर हो विपरीत रहा है, क्योंकि समाज को राह दिखाने वाले मीडिया क्षेत्र में संपादक की भूमिका लगातार कम होती जा रही है। लघु या मध्यम ही नहीं, बल्कि बड़े समाचार पत्र भी संपादक विहीन नजर आ रहे हैं, इससे भी बड़े दु:ख और आश्चर्य की बात यह है कि संपादक की लगातार कम हो रही भूमिका पर मीडिया जगत में शीर्ष पदों पर बैठे लोग भी चिंतित नजर नहीं आ रहे हैं, ऐसे में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की टिप्पड़ी बेहद महत्वपूर्ण कही जा सकती है। उनके शब्दों में संपादक नामक संस्था के क्षरण होने का दर्द स्पष्ट झलक रहा है।
अखबारों पर बाजार के इस तरह हावी होने की कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी। अखबार में जिस संपादक नाम के प्राणी को सर्वोपरि माना जाता था, अब वह संपादक ही नजर आना बंद हो गया है। अधिकांश अखबार संपादक विहीन ही नजर आ रहे हैं और जिन अखबारों में संपादक हैं भी, उन अखबारों में संपादक से खबरों का काम लेने की जगह अन्य काम ही अधिक लिये जा रहे हैं, तभी अखबारों की गरिमा लगातार गिर रही है। गुजरे दौर में अखबार की दिशा और दशा संपादक निश्चित करता था। बुद्धिमान संपादक की बुद्धिमत्ता प्रत्येक खबर में झलकती थी। पाठकों के सुझावों और शिकायतों पर विशेष ध्यान दिया जाता था और हर दिन पाठकों के अनुरूप सामग्री देने का प्रयास किया जाता था, लेकिन अब ऐसा अधिकांश अखबारों में नहीं होता। समय के साथ बदली सोच ने संपादकों को प्रबंधक बना दिया है या प्रबंधक नाम का एक सुपर बॉस पैदा हो गया है, जो अखबारों की दिशा और दशा निश्चित कर रहा है, तभी आज कल अखबारों में सामग्री पाठकों के अनुरूप कम, बाजार के अनुरूप अधिक दिखाई दे रही है, इसीलिए मीडिया पर हर कोई अंगुली उठाने लगा है। मीडिया पर होने वाले तीखे प्रहारों का जवाब देने की स्थिति में एक भी व्यक्ति नजर नहीं आ रहा, क्योंकि बाहर आकर चाहे कोई जैसा भी व्यवहार कर रहा है, पर अंदर कमरों में अधिकांश संपादक लगभग एक जैसी ही योजना पर काम करते नजर आ रहे हैं। खबरों की गुणवत्ता की चिंता में आज कल कोई सूखता नजर नहीं आ रहा। सबका उद्देश्य बाजार को साथ लेकर ही चलने का है, तभी सुप्रीमो कहा जाने वाला संपादक निरीह प्राणी बन कर रह गया है और संघर्ष करने की बजाये विलुप्त न हो इसलिए खुद को भी उसी वातावरण में ढाल कर आनंद लेने लगा है।
संघर्ष की दवात में ईमानदारी की स्याही रहती थी, तभी अभाव के कागज पर चलने वाली साहस की कलम सच उजागर कर पाती थी, इसीलिए एक-एक शब्द से कर्तव्यहीन, भ्रष्टाचारी और देश द्रोही थर्राते थे, लेकिन अब समय बदल गया है। संघर्ष, ईमानदारी और सच जैसे शब्द दकियानूसी विचारधारा की श्रेणी में रखे जाने लगे हैं। ग्लैमर ने सब कुछ बर्बाद कर दिया है, क्योंकि जो लोग गुणवत्ता, ईमानदारी, संघर्ष, साहस और सच की बात करते हैं, वही लोग सस्ते जूते, सस्ते कपड़े और घर के सस्ते सामान को देख कर संपादक को नजरों से गिरा देते हैं, ऐसे में कोई संपादक आपकी नजरों में क्यूं गिरना चाहेगा?
अगर आप सच के पक्षधर हैं, तो बाजार के साथ चलने वालों को नकार दीजिये, वह सुधरेंगे या मिट जायेंगे और अगर आप ऐसा नहीं कर सकते, तो फिर मूकदर्शक ही बने रहिये, आलोचना भी मत करिये, क्योंकि समय ने आज संपादक को जहां पहुंचा दिया है, वही समय संपादक को एक बार फिर वहीं पहुंचायेगा।