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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Friday 25 May 2012

गुनाह से कम नहीं है गरीबी

सरकार, राजनेता और समाज सुधारक आये दिन आम आदमी को नये-नये सपने दिखाते ही रहते हैं, पर 21वीं सदी का एक दशक पार करने के बाद भी बहुत कुछ आज भी नहीं बदला है। बदलने की तो बात ही छोडिय़े, कुछ मामलों में देश और समाज आगे की बजाये और पीछे जा रहा है। शुरू से ही समस्त जीवों की तुलना में मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाता रहा है, लेकिन अब समृद्ध मानव होना ही सर्वश्रेष्ठ है। आज धरती पर गरीब अभिशाप की तरह ही है। दावे और वादे किये जाते रहे हैं और किये जाते रहेंगे, पर कर्ज में डूबे किसानों द्वारा की जा रहीं आत्महत्या की घटनायें राजनेताओं के अब तक के दावों और वादों की सच्चाई बयां करने के लिए काफी हैं। गरीबी के बोझ को ढोने में अक्षम आम आदमी को मौत ही प्रिय नजर आती है, लेकिन उनकी जान बचाने के लिए आज भी राजनेता गंभीर नजर नहीं आ रहे हैं। इसी तरह देश में बढ़ते लिंग अनुपात के कारण महिलाओं की स्थिति सुधरने की बजाये और दयनीय होती जा रही है। देश के मैट्रो शहरों के साथ उत्तर प्रदेश ऐसी मंडी बनता जा रहा है, जहां अन्य राज्यों से झांसा देकर लड़कियां लाई जा रही हैं और जानवरों की तरह उन्हें कई-कई जगह बेचा जा रहा है। बंधुआ मजदूर की तरह रखा जा रहा है या फिर बच्चे पैदा करने की मशीन भर रह गयी हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसी महिलाओं की संख्या लाखों में हो सकती है, जो बाहर के राज्यों से लाकर यहां बेची गयी हैं और फिर पसंद न आने पर पत्नी के रूप में रखने वाले पति ने दूसरे को और दूसरे ने तीसरे व्यक्ति को बेच दिया है, साथ ही सभी के घर वह एक-एक, दो-दो पैदा कर बच्चे भी छोड़ आई हैं। इससे उन लोगों का तो वंश चलने लगा है, पर ऐसी महिलायें या तो वैश्या बन कर रह गयी हैं या फिर मानसिक संतुलन खोने के कारण सडक़ों पर ठोकरें खाते हुए देखी जा सकती हैं। इससे भी बड़ी दरिंदगी और दु:ख की बात यह है कि ऐसी अद्र्धविक्षिप्त महिलाओं को भी वहशी नहीं छोड़ते, उन्हें गर्भवती बना देते हैं। 21वीं सदी के भारत का एक कड़वा सच यह भी है, पर इस ओर किसी का ध्यान तक नहीं है, क्योंकि ऐसे मुद्दों को उठाने पर भीड़ नहीं जुटती, लोग चंदा भी नहीं देते और जब कोई ध्यान या चंदा भी नहीं देगा, तो फिर मुद्दे को कोई उठायेगा ही क्यूं? उत्तर प्रदेश के पिछड़े जिलों के अधिकांश गांवों में दो-दो, चार-चार से लेकर दस-बीस से भी अधिक ऐसी महिलायें मिल जायेंगी, जिन्हें किसी तरह झांसा देकर बिहार, छत्तीसगढ़, असम, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों से लाया गया है। दस, पन्द्रह गांवों के बीच एक दलाल भी ऐसा मिल जायेगा, जो बीस से तीस हजार रुपये लेकर लडक़ी लाकर दे देता है या साथ जाने पर दिला देता है, क्योंकि गरीबी के चलते लड़कियों के माता-पिता अधिक पूछताछ नहीं करते, साथ ही वहां का स्थानीय दलाल भी साथ रहता है। स्थानीय दलाल के विश्वास पर एवं दो-चार हजार रुपये के लालच में शादी कर वहां के गरीब लोग लडक़ी से छुटकारा पा लेते हैं, इसीलिए बाद में उन्हें पता ही नहीं चलता कि उनकी लड़कियों के साथ यहां क्या हो रहा है? गैर राज्यों से शादी का झांसा देकर लाई गयीं अधिकांश लड़कियां मायके वापस नहीं जा पातीं और न ही कोई उन्हें देखने आ पाता है। इस तरह से झांसा देकर लाई गयी लड़कियों का पहले तो दलाल ही शोषण करता है और बाद में खान-पान, रहन-सहन और भाषा-व्यवहार में असमानता होने के कारण संबंधित पति बच्चे पैदा कर दलाल के ही माध्यम से अगली जगह बिकवा देता है और कई बार दूसरा भी वैसा ही करता है। इसके अलावा किसी परिवार में तीन, चार या पांच अविवाहित पुरुष हैं, तो उस महिला को अघोषित तौर पर सभी की पत्नी बन कर रहना पड़ता है। महिलाओं के साथ दरिंदगी का यह खेल दशकों से ही नहीं, बल्कि सदियों से चल रहा है, पर स्थानीय प्रशासन जानकारी होने के बाद भी कार्रवाई नहीं करता। देश और समाज के भाग्य विधाताओं के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है। पढ़ी-लिखी और बड़े परिवारों की महिलाओं को जागरुक करने के लिए, पुरुष प्रधान समाज के विरुद्ध महिलाओं में विश्वास जागृत करने के लिए देश में तमाम क्लब बने हुए हैं, आयोग है, संगठन हैं, एनजीओ हैं, लेकिन वास्तव में इन परेशान महिलाओं को न्याय दिलाने वाला कोई दूर तक नजर नहीं आ रहा, क्योंकि यह गरीब के घर में पैदा हुई हैं, पर कोई यह भी बताने वाला नहीं है कि गरीब होना, इतना बड़ा गुनाह है क्या? जवाब अगर गुनाह ही मान लिया जाये, तो फिर सवाल यह भी उठता है कि इस गुनाह की सजा, इतनी बड़ी होनी चाहिए क्या? (उक्त लेख हिंदी साप्ताहिक गौतम संदेश के 24 मई के अंक में प्रकाशित हो चुका है।)