My photo
मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Tuesday 29 May 2012

गणेश शंकर विद्यार्थी के कार्यों को जीवन में उतारें

सस्ते कपड़ों में लिपटा दुबला सा शरीर, रबर की सस्ती चप्पलों के बीच से झांकते धूल से लथपथ पैर, बिखरे हुए बालों के बीच चमकती आंखें और कंधे पर लंबा सा थैला लटकाने वाले व्यक्ति के रूप में पत्रकार की पहचान की जाती रही है। वे लोग अपने लिविंग स्टैंडर्ड या स्टाइल को लेकर कभी गंभीर या दु:खी नजर नहीं आते थे, क्योंकि पत्रकारिता उनके लिए सिर्फ रोजी-रोटी का साधन नहीं था, पत्रकारिता उनके लिए एक मिशन था और मिशन के लिए वह हर तरह से जुटे रहते थे। परिवर्तन की आंधी में पत्रकारों की भी सोच बदल गयी है। डीसेंट दिखने के साथ लग्जरी गाडिय़ों में चलने वाले ही बड़े पत्रकार माने जाते हैं अब। पत्रकारिता जगत में भी पैसे की अपार संभावनायें पैदा हो गयी हैं। आकर्षक वेतन के साथ ग्लैमर भी भरपूर है, जिसमें मिशन का नामोनिशान तक मिट गया है। आज के पत्रकारों की सोच है कि उनका मूल कार्य पत्रकारिता ही है, जिसे वह ईमानदारी से कर रहे हैं, तो अपने में पूरी तरह संतुष्ट नजर आते हैं और मान लेते हैं कि बाकी दुनिया से उनका कोई लेना-देना नहीं है। इसी सोच का दुष्परिणाम है कि आग से जलते चीखते, दौड़ते-भागते व्यक्ति की पल-पल की खबर जनता तक पहुंचा कर आराम से बैठ जाते हैं। सैकड़ों पत्रकारों के बीच में इंसान जिंदा जल मरता है और एक भी पत्रकार को ऐसी घटना पर दु:ख इसलिए नहीं होता कि उनका कार्य उसे बचाना था ही नहीं। राजनीति के मुद्दे पर भी पत्रकारों की यही सोच है। अधिकांश पत्रकारों का यही सोचना है कि उनका काम लिखना है और वह खुल कर लिख रहे हैं, जबकि पत्रकारिता के साथ अन्य मुद्दों, समस्याओं और बुराईयों की ओर भी पत्रकारों का बराबर ध्यान होना चाहिए। कोई पत्रकारिता के साथ अन्य क्षेत्र में काम करने लगे, तो उसे साथी पत्रकार शुद्ध पत्रकार मानना छोड़ देते हैं। राजनीति करने वाले पत्रकारों की तो घोर आलोचना की जाती है। अधिकांश संस्थान नौकरी से निकाल देते हैं, लेकिन अधिकांश पत्रकारों के आदर्श गणेश शंकर विद्यार्थी हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे। उनकी सोच सिर्फ पत्रकारिता तक ही सीमित रही होती, तो शायद, वह भी सम्मान के शिखर पर विद्यमान न होते। उन्हें विशिष्ट इसीलिए माना जाता है कि उन्होंने हर क्षेत्र में संघर्ष कर लोगों के सामने नित नये उदाहरण रखे। उन्होंने अध्यापन कार्य किया। रिजर्व बैंक में सरकारी नौकरी की। होम रूल आंदोलन के सक्रिय सदस्य रहे। कानपुर की मजदूर सभा के अध्यक्ष रहे। जमींदारों के विरुद्ध आंदोलन चलाया और आंदोलनरत लोगों पर गोली चलाने वाली पुलिस के विरुद्ध भी आंदोलन किया, वह जेल गये और उनका प्रताप नाम का प्रतिष्ठित अखबार भी बंद हो गया, जो बाद में जमानत राशि जमा करने पर शुरू हुआ। फतेहपुर के राजनैतिक सम्मेलन में उन्होंने वर्ष 1923 में खुल कर भाषण दिया कि वह मैं सब प्रकार के शोषण के विरुद्ध हूं, वह शोषण जमींदारों का हो, पंूजीपतियों का हो अथवा सरकारी अधिकारियों का। इस भाषण पर उन्हें पुन: जेल जाना पड़ा, पर उनकी सोच और कार्य प्रणाली में कोई अंतर नहीं आया। उत्तर प्रदेश में 193० में चलाये गये सत्याग्रह आंदोलन के वह डिक्टेटर रहे। इससे पहले उन्होंने कानपुर के निकट सेवाश्रम की भी स्थापना की, जिसके माध्यम से आसपास के दो सौ से अधिक गांवों में ग्रामीण सुधार कार्यक्रम बड़े पैमाने पर चलाया गया। इस सबके बावजूद झांसी के सम्मेलन में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया, तो उन्होंने उस समय दायित्व लेने से साफ मना कर दिया। इस सबसे साफ है कि वह मानव और मानवता के लिए ही जीते थे और उसी के हित के लिए कुछ भी करने को हमेशा तत्पर रहते थे, इसलिए उन्हें आदर्श मानने भर से कुछ नहीं बदलेगा। उनके जिन विशिष्ट कार्यों को लेकर हम उन्हें आज तक सम्मान दे रहे हैं, उनके वही कार्य आगे बढ़ाने होंगे। जो आज तक अधूरे हैं, वह पूरे करने होंगे और अगर, यह सब नहीं कर सकते, तो उनका गुणगान करना भी व्यर्थ ही है, क्योंकि सिर्फ गुणगान करने से देश या समाज का भला नहीं होने वाला।