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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Sunday 10 June 2012

खुसरो ने प्रेम, ईश्वर, अल्लाह के साथ भाषाओं का संगम कराया

अबुल हसन यमीनुद्दीन खुसरो (अमीर खुसरो) किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के जनपद एटा व वर्तमान में जनपद कांशीराम नगर के कस्बा पटियाली में 1253 में जन्मे अमीर खुसरो ने शुरु में फारसी में लिखना शुरु किया और कुछ ही दिनों बाद दिल्ली सल्तनत में राजदरबारी कवि नियुक्त हो गये। वह सात बादशाहों के साथ रहे। अमीर खुसरो हिंदी व खड़ी बोली के आदि कवि कहे जाते हैं, पर चिश्ती सूफी संत हजरत निजामुद्दीन के अच्छे मित्र एवं शागिर्द होने के कारण रुहानी अंदाज में लिखने के लिए भी पहचाने जाते हैं, लेकिन तमाम कारणों के चलते अमीर खुसरो को यथा स्थान नहीं मिल पा रहा है, जबकि उन्होंने किलिष्ट भाषा के साथ आम आदमी की भाषा में भी बहुत कुछ लिखा। उनकी लिखी कविताओं, शायरियों, गजलों व छंदों को अगर ध्यान से पढ़ा जाये तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज कल उनकी नकल की जा रही है। छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके। बात अगम कह दीनी रे मोसे नैना मिलाइके। प्रेम भरी मदवा पिलाइके। मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। गोरी-गोरी वइयां हरी-हरी चूडिय़ां वईयां पकड़ लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। बल-बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा। अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। खुसरो निजाम के बल-बल जाए। मोहे सुहागिन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके। बात अजब कह दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। आम भाषा में भी उन्होंने ऐसा लिखा कि सब कुछ बोलते पर ही समझ में आ जाता है। बहुत कठिन है डगर पनघट की कैसे मैं भर लाऊं माधवा से मटकी पनिया भरन को मैं जो गई थी दौड़ झपट मेरी मटकी पटकी बहुत कठिन है डगर पनघट की खुसरो निजाम के बल-बल जाइए लाज रखो मेरे घूंघट पट की बहुत कठिन है डगर पनघट की। उन्होंने हिंदी, उर्दू, फारसी को ही नहीं बल्कि प्रेम, ईश्वर व अल्लाह का भी तालमेल करा दिया। मोहे अपने ही रंग में ले तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही। मोहे अपने ही रंगे . . . हमारी चुनरिया पीया की पगरिया वो तो दोनों बसंती रंग दे। तू तो साहिब . . . जो कुछ मांगे रंग की रंगाई मोरा जोवन गिरवी रख ले। तू तो साहिब मेरा . . . आन पड़ी दरबार त्याहरे मेरी लाज शरम सब रख ले तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही। मोहे अपने ही रंग में रंग ले फारसी में उनका हाथ बेहद साफ माना जाता है, फिर भी उन्होंने ऐसी रचनायें कीं, जो आसानी से समझ में आ सकती हैं। जेहाले मिस्की मकुन तगाफुल दोराय नैनां बनाए बतियां कि तावे हिजरा नदारक एजां न लेहो काहे लगाए छतियां शबाने हिजरा दराज चूं जुल्फ व रोजे वसलत चो उमर कोतह सखी पीया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां यकायक अज दिल दो चश्मे जादू बसद फरेबम वबुई तस्कीं किसे पड़ी है जो जा सुनावे प्यारे पी को हमारी बतियां चो शम्मा सोजां चो जर्रा हेरां हमेशा गिरयां बे इश्क आं मेह न नीन्द न नैना न अंग न चैना न आप आवे न भेजें पतियां बहक्के रोजे विसाले दिल्वर कि दाद मारा गरीब खुसरो सपीत मन के बराय राखूं जो जाए पाऊं पिया के पतियां उनके दोहे बेहद सुने व पढ़े जाते रहे हैं, क्योंकि उनमें सब कुछ होता है। खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार, जो उभरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार। इसी तरह देखें कि एक गुनी ने यह गुन कीना, हरियल पिंजरे में दे दीना, देखो जादूगर का कमाल, डाले हरा निकाले लाल। उनके लिखे हुए शब्द गांवों में उदाहरण बन गये थे, जैसे-खीर पकाइ जतन से चरखा दिया जला, आया कुत्ता खा गया तू बैठी ढोल बजा।