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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Monday 18 June 2012

भाजपा ने सिद्ध की कहावत

भाजपा के अंदर चल रही जंग देख कर यही लग रहा है कि भाजपा नेताओं में कमल को कीचड़ में डुबोने की प्रतियोगिता चल रही है। एक छींटे मारता है, तो दूसरा उसके ऊपर टेंकर भर कर उड़ेलता नजर आ रहा है। भाजपा नेताओं का यही हाल रहा, तो यूपीए के सामने आने वाले लोकसभा चुनाव में प्रतिद्वंदी ही नहीं होगा, क्योंकि तब तक भाजपा स्वत: ही मिट चुकी होगी, वैसे सैद्धांतिक दृष्टि से बचा आज भी कुछ नहीं है। न सूत, न कपास, फिर भी लट्ठम-लट्ठा वाली बात अब तक काल्पनिक कहावत ही प्रतीत होती रही है, लेकिन भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद को लेकर चल रही अघोषित प्रतियोगिता से साफ है कि वो कहानी भी सच्ची ही होगी। 21वीं सदी में सत्ता से बाहर चल रहे विद्वान लोग प्रधानमंत्री पद को लेकर आपस में झगड़ सकते हैं, तो वह कहावत तो उससे भी पहले की है, जब अधिकांश लोग आकाश में उडऩे वाले हैलीकाप्टर को चील गाड़ी कहते थे। असलियत में भाजपा में फिलहाल शीर्ष स्तर पर समकक्ष नेताओं की भरमार है और उस पर भी अध्यक्ष उनका जूनियर है, ऐसे में अनुशासन कायम रहना मुश्किल ही है, साथ ही जनता के बीच काम करने वाले लोग भाजपा में अंगुलियों पर गिनने लायक ही बचे हैं। भाजपा के लिए दुर्भाग्य की बात यह है कि काम करने वालों को श्रेय देने वाला भाजपा में एक भी नेता नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी ने स्वयं को नेता मानना ही छोड़ दिया है, वह स्वयं को अब महापुरुष मानने लगे हैं। अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को चुनाव लडऩे के नाम से ही पसीना आ जाता है, फिर भी प्रधानमंत्री की कुर्सी की दावेदारी का सवाल आता है, तो प्रबल दावेदार के रूप में उन्हें स्वयं का ही चेहरा नजर आता है, वहीं पुन: राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से नितिन गडकरी का विश्वास भी सातवें आसमान पर नजर आ रहा है, उन्हें अच्छी तरह पता है कि जब वह राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकते हैं, तो प्रधानमंत्री क्यूं नहीं बन सकते? इन सबके बीच उमा भारती को भी मोतिया बिंद नहीं हुआ है। उनकी नजर भी एक दम सही है और उन्हें भी प्रधानमंत्री की कुर्सी स्पष्ट नजर आती है, लेकिन समय अनुकूल न होने के कारण अवसर के इंतजार में हैं, वहीं राजनाथ सिंह मूक दर्शक की भांति सब शांत भाव से दूर बैठे तमाशा देख रहे हैं और मन ही मन मुस्करा भी रहे होंगे। हां, मुरली मनोहर जोशी, वह तो सभी के निपटने के इंतजार में ही जीये जा रहे हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी का ख्याल आते ही सबकी खुशियां काफूर हो जाती हैं, क्योंकि बाकी सभी प्रतिद्वंदी समकक्ष शक्ति वाले हैं, पर नरेन्द्र मोदी से अखाड़े में आकर लडऩे का साहस अभी किसी के पास नजर नहीं आ रहा, इसीलिए इस कांटे से सभी पीछा छुड़ाना चाहते हैं। स्वार्थ के चलते यह पूरी तरह भूल चुके हैं कि वर्ष 2०14 के लोकसभा चुनाव में उनके पास नरेन्द्र मोदी के अलावा और होगा ही क्या? (उक्त लेख हिंदी साप्ताहिक गौतम संदेश में प्रकाशित हो चुका है।)