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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Wednesday 12 September 2012

कभी-कभी जानते हुए भी गलती हो जाती है

अखबारों के बीच अब कल्पना से भी अधिक प्रतिस्पर्धा है, लेकिन प्रतिस्पर्धा होने के बाद भी गुणवत्ता लगातार गिर रही है, जबकि प्रतिस्पर्धा के अनुपात के अनुसार गुणवत्ता शिखर पर होनी चाहिए थी, आजादी से पहले की तो बात ही छोडिये, साठ-सत्तर के दशक के मैं कभी अखबार देखता हूँ, तो दंग रह जाता हूँ, उस समय के पत्रकार वाकई साहसी रहे होंगे, साथ ही वह नौकरी तो बिल्कुल भी नहीं करते होंगे, तभी पत्रकारिता कर पाए, मैं नब्बे के दशक में पत्रकारिता में आया, तब भी गुणवत्ता बरकरार थी, लेकिन कुछ लोग छोटे-मोटे स्वार्थ पूरे करने लगे थे, लेकिन अखबार का और अखबार में छपी खबर का अन्दर तक असर होता था, मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ, तो मुझे एक भी घटना ऎसी याद नहीं आती, जब मैंने दबाव या प्रलोभन में कभी कोई खबर छापी हो या न छापी हो, दबाव और प्रलोभन कितने मिले हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है, लेकिन जब-जब ऐसा हुआ है, तब-तब मैंने और खूंखार रिपोर्टिंग की है, कुछ लोगों के साथ यह समस्या होती है कि वह क्राइम की रिपोर्टिंग अच्छी करते हैं, लेकिन कोई और बीट दे दी जाए, तो फेल हो जाते हैं या अन्य बीट देखने वाले को क्राइम दे दिया जाए, तो वह क्राईम में फेल हो जाते हैं, मेरी कार्यप्रणाली पहले दिन से ही ऎसी थी, सो झल्लाहट में मुझ पर नये-नये प्रयोग किये गये, जिसका लाभ यह हुआ कि मुझे हर क्षेत्र की समान जानकारी होती चली गई, आज मुझे हर क्षेत्र की खबर लिखने में मज़ा आता है, सब जगह अपने स्तर से झंडे गाड़े हैं, जबकि शुरू में मैं क्राइम का ही मास्टर था, शुरुआत की ही एक घटना याद आ रही है, जिसे मैं आज भी याद करता हूँ, तो अफ़सोस होता है, उस समय जिलेवार संस्करण नहीं आते थे, मंडल स्तरीय संस्करण ही थे, जिनमें खबर छपने पर पूरा तहलका होता था, एक दिन शाम के समय एक फोन आया, उसने बताया कि अमुक थाना क्षेत्र के अमुक गाँव में अमुक के ईख की फसल में कई दिनों से एक लाश पड़ी है, दहशत में लोगों ने उस दिशा में जाना तक बंद कर दिया है, उसी गाँव के एक अन्य व्यक्ति को फोन कर मैंने घटना की तस्दीक की, तो उसने भी यही बताया, चूँकि समूचे इलाके में यही चर्चा थी, सो सब एक ही बात बता रहे थे, दोपहर की बात होती, मैं मौके पर अवश्य जाता, लेकिन शाम की वजह से मैंने उस खबर को फोन के आधार पर ही बना दिया, अगले दिन सुबह को तहलका मच गया, स्टेशन आफिसर से लेकर बड़े अधिकारियों के फोन घन-घनाने लगे, बरसात का मौसम था, हजारों एकड़ ईख थी, जिसमें कई थानों की पुलिस एएसपी के नेतृत्व में शव को खोज रही थी, खोजबीन के बाद वहां नील गाय का शव पड़ा मिला, कुत्तों ने उसे दौड़ा कर बुरी तरह घायल कर दिया था, जो ईख में जाकर मर गया था, मैं इस खबर को अफवाह बता कर अगले दिन सही करने की सोचे बैठा था, तभी संबंधित एसओ का फोन आया कि और पुलिसिया टोन में खंडन छापने का दबाव देने लगा, मैंने कहा कि खुद सोचे बैठा हूँ, सब ठीक कर दूंगा, आप क्यूं परेशान हो रहे हैं, इतने पर वह बोला कि जो करना था, सो कर दिया अब और क्या कर सकते हो, अब नील गाय के शव को इंसान का शव बता दोगे क्या? मुझे उसका अंदाज़ पसंद नहीं आया, दिमाग भन्ना गया, तो मैंने फिर खबर बनाई कि अमुक थाना क्षेत्र की पुलिस ने शव को उठवा कर अमुक थाना क्षेत्र में फेंक दिया और नील गाय के कंकाल को दिखा कर अपनी गलती दबाने का प्रयास कर रही है, सुबह को डीजीपी एक-एक मिनट की रिपोर्ट लेने लगे, एसपी ने कहा कि यार, मौके पर मैं भी था, वहां कुछ नहीं था, मैं उस एसओ के व्यवहार से नाराज़ था, इसलिए उनसे कह दिया कि आपके पहुँचने से पहले ही शव गायब करा दिया, अब कार्रवाई की तलवार दो एसओ पर लटक गई, दूसरा एसओ भी खंडन को कहने लगा, तो तीसरे दिन मैंने फिर खबर लिखी कि अमुक एसओ ने शव को गंगा पार जिले के बाहर फेंका, इसमें बड़े अधिकारियों की भी मिलीभगत नज़र आ रही है, इस खबर के बाद कार्रवाई होनी ही थी, दोनों एसओ को निलंबित कर लाइन हाजिर कर दिया गया, मेरे सीने में ठंडक पड़ गई, लेकिन आज याद करता हूँ, तो अफ़सोस होता है, वो सब सनक, हनक, अहंकार, जो भी कहा जाए, उसका ही परिणाम था, उसके बाद मैंने आज तक कोई गलती नहीं की, अंजाने में कुछ हुआ हो, तो कह नहीं सकता, यह गलती मैंने बाद में उन दोनों एसओ के सामने स्वीकार भी की, वह दोनों आज भी मेरे मित्र हैं, अब पता नहीं कहाँ हैं?