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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Thursday 6 September 2012

बदतमीज तो हो सकता हूँ, हरामी और बेशर्म कभी नहीं

मैं विभिन्न स्थानों पर लिख चुका हूँ की मैं आँख खोलने के बाद से ही पापा से बहुत डरता हूँ, डर भी सच था, उनकी आहट भर से हृदय की धड़कन बढ़ जाती थी, जब तक वो रेंज से दूर नहीं चले जाते थे, तब तक वही हालत रहती थी, पूरे जीवन में पिटाई दो-चार बार ही हुई है, पर उनका भय अन्दर से ही हमेशा रहा, लेकिन उनके बारे में कभी किसी ने उल्टी-सीधी टिप्पड़ी सपने में भी कर दी और मुझे पता चल गया, तो उसे मेरे कहर से कोई नहीं बचा पाया, तमाम लोग और तमाम घटनाएं हैं, जिनका उल्लेख यहाँ आवश्यक नहीं है, मैं यह जानता हूँ अब की डर उनका दिखावटी रूप था, क्योंकि जीवन में मैंने कभी उगता सूरज नहीं देखा, पर पापा ने मुझे कभी उठा कर जूते नहीं मारे, गाँव में जन्म लेने के बाद, मुझे आज भी खूंटा गांठ तक लगानी नहीं आती, मूंगफली और आलू जमीन के अन्दर से खोदे जाते हैं, यह बहुत साल बाद ज्ञात हुआ, ऐसे उन्होंने मुझे पाला है, पापा के प्रति ह्रदय में जितना डर था, उससे कहीं अधिक सम्मान भी है, उक्त भूमिका आवश्यक थी, इसलिए चर्चा की, बात डेढ़ दशक से भी पहले की है, मैं बहुत छोटी उम्र से ही पत्रकारिता करने लगा था, उस समय मैं अमर उजाला का संवाददाता था, पापा उस समय प्रधान थे, प्रधान भी नाम के नहीं आदर्श प्रधान, उस समय ग्राम पंचायतों के विकास के लिए कोई खास योजना नहीं चलती थी, ग्राम पंचायत के पास बहुत सीमित धन होता था, पर पापा ने उतने ही धन से गाँव की तस्वीर बदल दी, गाँव के नाले-नालियों का पानी तीन अलग-अलग दिशाओं को जाता था, दो दिशाओं में कोई अवरोध नहीं था, पर पूरब दिशा में स्थित तालाब में पानी पहुंचाने के लिए हाइवे को पार कराना था, जिस पर पुलिया ही एक विकल्प थी, लेकिन ग्राम पंचायत के खाते में पुलिया बनाने लायक न धन होता था और न ही ऐसा प्रावधान था, सो पूरा गाँव साफ़-सुधरा था, लेकिन हाइवे के पास आकर एक दिशा का पानी जमा हो जाता था, उसकी वैकल्पिक व्यवस्था करा रखी थी, लेकिन बरसात के दिनों में वैकल्पिक व्यवस्था ध्वस्त हो जाती थी, बात बरसात के ही दिनों की है, बुलेट बचपन में ही मिल गई थी, लेफ्टिनेंट के अंदाज़ में रोज की तरह ही उस पानी से गुजर रहा था, तभी एक मुंह लगे व्यक्ति ने मज़ाक में ही कहा की प्रधान पिता है, बेटा पत्रकार है, यह खबर अखबार में कैसे आ सकती है?, उस व्यक्ति के मज़ाक पर ही मैंने उसी दिन खबर लिखी, अगले दिन दो कालम में छपी, आज भी मेरे पास उस खबर की कटिंग रखी है, खैर, लिख तो दी, पर रात से ही मेरी पत्रकारिता की ऎसी-तैसी थी, क्योंकि सुबह को छपने के बाद क्या होगा?, उसको लेकर तरह-तरह के डरावने सवाल और ख्याल आ रहे थे, लग रहा था की इस घर में आज की रात आखिरी है, कल घर से निकाल दिया जाउंगा, आधी से अधिक रात इसी दहशत में बीत गई, कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला, सुबह को बिस्तर पर ही चाय और अखबार पढने के बाद उठने की आदत थी, पर उस दिन आँख खुलते ही झटके से उठा और खिडकी से झाँक कर घर के हालात जानने का प्रयास करने लगा, सब ठीक लगा, उस दिन और दिन की अपेक्षा और देर से जगा था, पापा जा चुके थे, यह अहसास होते ही पूरी शान से कमरे के बाहर आया, मम्मी से तस्दीक की, पापा कहाँ हैं? बोली- बहुत देर के बदायूं गए, मैंने फिर पूंछा, मेरे बारे में कुछ कह रहे थे, बोली- नहीं, क्यूं?, मैंने कहा कुछ नहीं, ऐसे ही पूंछा, मम्मी ने कहा, बाहर कुछ किया होगा, उन्हें शाम तक पता चल जाएगा, बता दे क्या किया? मैंने कहा कुछ नहीं किया है, तो बोली- फिर डरा क्यूं है? मैंने कहा छोड़, तेरी समझ में कुछ नहीं आयेगा, तो बोली- मुझे समझने की क्या जरुरत है, खुद ही भुगतना, इन्हीं बातों के दौरान मैं तैयार हो गया, नाश्ता कर के बुलेट को घुमा ही रहा था, तभी मम्मी बोली- सुबह पापा हजार रूपये दे गए, सरस्वती के फोटो के पीछे रखे हैं, ले लो, मैंने कहा क्यूं, क्या लाना है? बोली- मुझ से इतना ही कहा की अपने लिए कपड़े या जो भी लाये, सो ले आये और कह रहे थे की आज जो खबर छपी है, उसका पुरुष्कार है यह, यह सुनते ही आप अंदाजा लगा सकते हैं की मेरी क्या हालत होगी, जितनी दहशत में रात कटी, उतनी ही दहशत से शाम का इंतज़ार करता मैं, लेकिन अब मैं ख़ुशी से उछल रहा था, शायद, उसी दिन से मैं ऐसा पत्रकार हो गया, जो किसी खांचे में आ ही नहीं रहा, आज मैं सिर्फ उस आम आदमी को पसंद हूँ, जिसकी दुनिया में कोई सुनता ही नहीं है और न ही वो किसी को दिखता है, दिखते हैं आलोचक, दिखते हैं चोर, चारों तरफ उन्हीं की संख्या अधिक है, इसलिए मैं इस दुनिया में अकेला ही हूँ, हाँ, कुछ दिनों पहले तक था कोई, जो इसी बात पर फ़िदा था, आज वो भी उन्हीं चोरों की जमात का ही हिस्सा है, इस पूरे व्रतांत का आशय यह है की अगर मैं डरा हूँ, तो सिर्फ पापा से, दुनिया में किसी को आँख बंद कर सम्मान देता हूँ, तो पापा को, उनकी गलती भी नहीं थी, लेकिन मैंने लिखते समय उनको भी नहीं छोड़ा, लोग कह सकते हैं की बाप का नहीं हुआ, तो किसका होगा, हाँ, मैं किसी का नहीं हूँ, सिर्फ अपनी आत्मा की ही सुनता हूँ, जो भी हो, आखिरी साँस तक आत्मा की ही सुनूंगा, लेकिन आज आत्मा पर दिल भारी है, कई बार प्रयास किये, लेकिन नहीं लिख पाया, आक्रोश में लिखने बैठा, तो भी नहीं लिख पाया, उन्होंने चेतावनी और चुनौती दी, तो भी नहीं लिख पाया, जीवन में ऐसा पहली बार हो रहा है की मैं जो सच लिखना चाह रहा हूँ, वो नहीं लिख पा रहा, मेरे अन्दर सोचने-समझने और झेलने की क्षमता अधिक नहीं है, पहले-दूसरे या तीसरे दिन ही लिख देता, प्रयास भी किया, लेकिन नहीं लिख पाया, आज उन्होंने ब्लाग लिख कर इशारों-इशारों में तमाम आरोप लगाए हैं, मैं इशारे में भी नहीं लिखता, लिखता या लिख पाउँगा, तो सीधा-सीधा ही लिखूंगा, उन्होंने आज का ब्लॉग बड़ी ही बुद्धिमत्ता से लिखा है, वो जानते हैं की मैं लिखूंगा, तो कुछ नहीं छोडूंगा, सो यह भी लिख दिया की उन्हें बदनाम करने की धमकी दी, ताकि मैं लिख भी दूं, तो लोग समझें की झगडे में सब झूंठ लिखा गया है, यह तो लिखा है की मैं पैसे से प्रेम करता था, लेकिन यह नहीं लिखा की उनकी खुद की कितनी औकात थी, एक चुहिया को हल्दी की गांठ मिल गई, तो वह खुद को दुनिया का सबसे बड़ा हल्दी व्यापारी समझने लगी, बस, यही भ्रम है, उनकी इतनी औकात है की अभी किसी माफिया को फोन कर दूं, तो पूरे सम्मान और मिठाई के डिब्बे के साथ घर पहुंचा के जाएगा, सेवा का अवसर देने के लिए धन्यवाद भी देगा, इसके बाद भी मैं उनके आरोपों को नहीं नकारता, खंडन भी नहीं करता, सब स्वीकार करता हूँ, ब्लॉग पर ही नहीं, पुलिस और अदालत में भी खुशी-खुशी मान लूंगा, लेकिन उन्हें यह भी तो बताना चाहिए की तुमने तो नाटक नहीं किया था, तुम्हारा तो सब सच था, मेरे वादे, मेरे संकल्प सब नाटक थे, तुमने तो सब काम आत्मा से किये थे, आस्तिक भी हो, आपके अनुसार मैं तो झूंठा था, तुम तो सच्चे थे, फिर अपने ही संकल्प क्यूं तोड़ रहे हो?, इसी तरह दुनिया को यह भी खुद ही बताओ की पहला मैसेज किसने किया, पहला फोन किसने किया, पहली बार बाहर जाने का दबाव किसने बनाया, पहली बार गिफ्ट किसने दिया, पहली बार प्रेमालाप किसने किया? ...... पहली बार .......? ....... पहली बार ....... ? .......... पहली बार .......... जितने भी पहली बार हुए हैं, उन सबका जवाब खुद ही दो और फिर बताना की मैं शातिर कैसे हूँ, चोर कैसे हूँ? ........ तुम्हें सुन्दरता पर अहंकार कल भी था और आज भी है, मुझे तुम कल भी मोहित नहीं कर पाईं और आज भी नहीं कर पाओगी, ठाकुर लंगोटी का जितना कच्चा होता है, उससे कहीं अधिक पक्का भी होता है ...... उसका दिल आये तो गधी पर आ जाये और न आये तो अप्सरा पर भी न आये, पर तुम्हारे प्रति पहले दिन ही भाव आया, तो सिर्फ पत्नी का ही आया, पत्नी भाव न आया होता, तो तुम अगले सात जन्मों तक भी मोहित नहीं कर पातीं, यह फेसबुक के छिछोरे यह समझते होंगे की उनकी तरह मैं भी पीछे पडा होउंगा, तो इनको बताओ सच  ...... आज जो दीवानगी है, वो रिश्ते के सम्मान को लेकर है, प्रेमिका ही रहती, तो मैं चर्चा तक पसंद नहीं करता, शौकीनों के लिए विशाल बाजार है, जिसमें केले से लेकर संतरे तक मिलते हैं, लेकिन ऎसी घृणित सोच का इंसान नहीं हूँ, मैं कितने भी नीचे गिर जाऊं, पर बदतमीज से नीचे नहीं जा सकता, हरामी और बेशर्मी की सीमा तक तो मैं कभी नहीं पहुंचूंगा, इसलिए स्वयं ही जवाब दो की शुरुआत किसने की?, फिर यही लोग निर्णय लेंगे की चोर, ठग, स्वार्थी, वहशी, हरामी और अपराधी कौन है?  ......... मेरा सिन्दूर भरना नाटक था, तुम ने तो आत्मा से भरावाया, सिन्दूर पोंछने की आदत किसकी है, यह भी दुनिया को खुद ही बताओ, तो अच्छा रहेगा सत्य की पुजारिन