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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Friday 7 September 2012

मैं ईश्वर के अस्तित्व को परखना चाहता हूँ

मैं वर्ष 2008 में डीएलए का ब्यूरो चीफ बना, कार्यालय का 5 मार्च को ऐतिहासिक उदघाटन हुआ, तमाम वीवीआईपी और वरिष्ठ अधिकारी आने थे, सो सब तैयारियां अपनी ही देखरेख में कराने के लिए उस दिन मैं सुबह से ही उठ कर लड़कों के साथ जुट गया, पापा भी आये थे, हवन-पूजन मैंने उनके ही हाथों से कराया, बात होती भी नहीं है, फिर भी अत्यंत व्यस्तता के बीच मैं आते और जाते समय पापा के चरण स्पर्श ही कर पाया, दोपहर बाद वह चले गए, उदघाटन से संबंधित कार्यक्रम शाम तक चलते रहे, करीब नौ बजे मैं सब निपटा कर घर पहुंचा, दिन मैं एक-दो काफी के अलावा बाक़ी कुछ नहीं खाया था, जाते ही हाथ-मुंह धोने में जुट गया और पोंछने से पहले ही मध् से कहा खाने को जो भी है, जल्दी दे दो, वह थाली लगा कर लाई, मैं रोटी का टुकडा तोड़ता तब तक, फोन की घंटी बज गई, मधु ने ही रिसीव किया, मैं उधर ही देख रहा था, हैलो बोलते ही, उधर से उसने कुछ सुना और बुरी तरह चीख पड़ी, रोटी का टुकडा वहीं छोड़ कर मैंने शीघ्रता से पूंछा कि क्या हुआ, वह कुछ नहीं बोल पाई, बदहवास रोये जा रही थी, मैंने झपट कर फोन अपने हाथ में लिया और हैलो, हैलो करने लगा, उधर से बुरी तरह मम्मी के रोने की आवाज आ रही थी, रोने के अलावा शब्द कुछ नहीं थे, मैं भी डर गया, लेकिन हुआ क्या है, यह बात पता न चलना और भी परेशान कर रही थी, तभी उधर का फोन एक लड़के ने ले लिया, वह बताने लगा कि अचानक पापा बैठे-बैठे ही गिर गये और उनकी आवाज नहीं निकल रही है, मेरी भी धड़कन रुकने जैसी हालत थी, लेकिन मैंने खुद को किसी तरह संभाला, गाँव के डाक्टर को फोन किया कि वह जल्दी से मेरे घर पहुंचे, उसने बताया कि भाई साहब, मेरी समझ में ब्रेन हेमरेज आ रहा है, पल्स, बीपी वगैरह सब ठीक है, मैंने लड़कों से कहा कि मैं आउंगा, फिर कुछ करूंगा, तो बहुत देर हो जायेगी, तुम लोग पापा को लेकर आ जाओ, करीब दस बजे वह लोग गाँव से निकले, डेड घंटे का रास्ता है, लेकिन बीस किमी के बाद गाड़ी के टायर में पंचर हो गया, ड्राईवर ने स्टेपनी बदली, फिर करीब बीस किमी के बाद ही पंचर हो गया, मैंने जहाँ गाड़ी खराब हुई थी, उसी के पास के गाँव में फोन कर ड्राईवर को स्टेपनी दिलाई, लेकिन बदायूं में घुसने से पहले फिर पंचर हो गया, ड्राईवर तीन पहियों पर ही गाड़ी दौड़ा लाया, बदायूं से दूसरी गाड़ी में हम लोग सीधे बरेली भाग गए, करीब एक बजे पापा को बरेली के एक मेडिकल इंस्टीटयूट में एडमिट करा दिया, सिफ्ट कराने के बाद मैं बाहर निकल कर आया और फिर अपने शेर जैसे पापा की उस हालत पर अँधेरे में जाकर फफक-फफक कर रोया, सब ठीक चल रहा था, उस दिन मेरे पास अस्सी हजार रूपये कैश घर ही था, वह साथ ही ले आया था, सुबह को कुछ मित्र, नजदीकी रिश्तेदार आये, वो अपनी तरफ से ही कुछ न कुछ दे गये, कुल करीब दो लाख कैश हो गया, इलाज सही चल रहा था, पापा को फायदा भी पहुँच रहा था, लेकिन आठवें दिन डाक्टर बोला कि आईसीयू में रखना पडेगा, मैंने कहा कि क्यूं? पहले दिन नहीं रखे, तो क्या जरूरत है, उसने कोई जवाब देने की बजाये, यही कहा कि तत्काल सिफ्ट करना है और कुछ नहीं बता सकता, आईसीयू में ले जाने का मतलब था, बीस हजार रूपये प्रति दिन का खर्च, जो अब नहीं बचे थे, मैं घबरा गया, मैंने एक रिश्तेदार को फोन किया और कहा कि दो-तीन लाख रूपये तत्काल चाहिए, उसने कहा कि चार बजे तक आ जाउंगा, लेकिन दो बजे ही उसका फोन स्विच आफ हो गया, जो देर रात तक नहीं खुला, मैं समझ गया कि यह नहीं देगा, बरेली में कुछ लोगों को फोन कर तत्काल वाली व्यवस्था कर के इलाज सुचारू रखा, रात में सोचता रहा कि कल रूपये कहाँ से मंगाऊ?
अचानक मुझे ध्यान आ गया कि कार्यालय के उदघाटन के अवसर पर दो पेज विज्ञापन छापे थे, रात में लड़के को फोन किया कि सुबह ग्यारह बजे तक, सब जमा कर के ले आओ, वो ले आया, लेकिन चिंता अभी भी बाक़ी थी, अस्पताल के कोने में बैठा सुबक रहा था, मन में सब चल भी रहा था, तभी ध्यान आया कि तुम्हारे ड्रीम प्लान वाला चैक भी तो बन गया होगा, असलियत में मैंने अपने मन में यह तय कर लिया था कि पत्रकारिता झटके से ही करनी ही है, लेकिन पत्रकारिता को रोजी-रोटी का साधन बनाओगे, तो झटके से नहीं कर पाओगे, इसलिए रोजी-रोटी ही नहीं, बल्कि गाडी-घोडा तक का मज़ा लेने के लिए साथ में कुछ और ही करो, घर पर मिनी फ्लोर मिल लगा था, उसी में मिनी राईस मिल जोड़ने के लिए मैंने एलडीएम से बात की, उसने कहा मैं दो दिन में सब काम करा दूंगा, आप अपना मन बना लो, मैंने अगले दिन उसे हाँ बोल दी, फरवरी 2008 में ही वह सब मंजूर हो गया, लेकिन कार्यालय के उद्घाटन के बाद दो-तीन दिन रह कर सब सही कराउंगा, इसलिए मैं जा नहीं पाया था, यही चैक ध्यान आ गया, मैंने रात में ही मैनेजर को फोन लगा दिया और पूंछा कि मेरा चैक बन गया या नहीं, मैनेजर ने कहा कि भाई साहब, दस दिन से बना रखा है, आप ही नहीं आये, मैंने कहा कि सुबह एक लड़का आयेगा, उसे दे देना, उसने कहा ठीक है, सुबह को मैंने एक लड़का बैंक भेजा, चैक चंदौसी की एक फर्म के नाम था, उस फर्म स्वामी ने चार प्रतिशत वैट और दो प्रतिशत अपना मुनाफ़ा लेकर बाक़ी रूपये नकद दे दिए, रूपये मेरे पास आ गये, तो मैं अब पैसे की चिंता से थोडा मुक्त हो गया, लेकिन बीस दिन के बाद जेब फिर कमजोर हो गई, इस बार मैंने मम्मी और मधु का जेबर उतार कर सर्राफ के यहाँ भेज दिया, पास के ही बैड पर किडनी कांड से जुड़ा एक मरीज चोरी से अपना उपचार करा रहा था, बहुत पैसे वाले परिवार की औरत थी, उसे नकली किडनी डाल दी गईं थी, मैंने उससे बात की कि दलाल से बात कर मेरी एक किडनी बिकवा दो, पर वह लोग डरे हुए थे, पूरा मामला मीडिया में छाया हुआ था, सो कुछ भी बोलने को तैयार नहीं थे, पत्रकार साला इस मुसीबत में भी जाग गया, मैंने अमर उजाला बरेली में कार्यरत एक मित्र को सब बता दिया, वह टीम लेकर आ गये और उनकी अच्छी स्टोरी हो गई, खैर, जेबर बेचने के बाद आये रूपये से मैं थोड़ा फिर निश्चिन्त हो गया, दो दिन बाद होली थी, डाक्टर बोला अब आप होली अपने घर जाकर मनाएं, मैं पापा को रिलीव करा लाया, हम सब लोग एक साथ बदायूं ही रहने लगे, शुरू के तीन महीने मैं पापा से दस फिट भी दूर नहीं गया, हम में से कोई भी एक साल तक गाँव नहीं गया, उस रात पापा के साथ मम्मी चली आई थीं, घर औरों के ही हवाले था, नौकर और परिचितों ने ही छः भैसें ढाई लाख रूपये में बेच दीं, रूपये वह लोग आ कर दे गये, कर्ज चुका दिया, राईस मिल का सपना टूट गया था, साथ में फ्लोर मिल भी बर्बाद हो गया, एक साल बाद हम लोग गाँव गये, तो वह सब भी बेच दिया, इसके बाद जिसने जो बताया, वो ही किया, किसी ने कहा कि पटियाली ले जाओ, किसी ने कहा कि कासगंज के हकीम अच्छे हैं, किसी ने कहा कि उस गाँव में पुश्तैनी दवा देने वाले हैं, सब जगह पापा को ले जाता था, दवा, सेवा और उनका चेहरा निहारना ही जीवन था, उन्हें मैं खुद से अलग ही नहीं होने देता था, हालांकि बाद में वह साफ़ बोलने लगे, तो गाली ही देते हैं, कहते कि बदायूं में मैं नहीं रहूँगा, मुझे मेरे घर छोड़ कर आ, लेकिन उनकी अनसुनी करता रहता था, पापा की बेबसी और बीमारी का दुःख था, है और रहेगा, फिर भी पूरे परिवार के साथ मेरी जिन्दगी मस्त चल रही थी, जुलाई 2011 में देवी चिदर्पिता से संपर्क हुआ, कुछ दिनों बाद ही बोलीं- मैं आपके साथ तीन-चार दिन शांति से गुजारना चाहती हूँ, मैंने उन्हें उक्त सभी बातें ऐसे ही सुनाईं, बोलीं- एक-दो दिन कोई रिश्तेदार, परिचित वगैरह तो होगा ही, जो उन्हें संभाल लेगा, मैंने कहा कि उन्हें फ्रेश कराने की सब से बड़ी समस्या है, बाक़ी कोई चिंता नहीं है, झल्ला कर बोलीं- देख लो, कैसे करना है, पर चलना है, 22 अगस्त 2011 को मैं मम्मी-पापा को गाँव पहुंचा आया, 23 अगस्त को हम लोग नैनीताल चले गए, हम लोग लौट आये और फिर साथ आ गये, शादी कर ली, लेकिन मम्मी-पापा आज तक नहीं आ पाए हैं, वो वहां खुश हैं, उन्हें गाँव का ही जीवन भाता है, पर मैं तो नालायक ही निकला, जो अपनी नई-नवेली पत्नी की चाहत में उनके प्रति अपने फर्ज को नहीं निभा पाया,  इसके बाद भी मिला क्या?
.......... जिस माँ का जेवर बेच दिया, जिस पत्नी का जेवर बेच दिया, उस माँ ने आज तक ठग नहीं कहा, उस पत्नी ने आज तक चोर नहीं कहा, पर जिसका जेवर छुआ तक नहीं, वो कह रही है कि मेरा जेवर बेच दिया, जिसके लिए पूरे परिवार को ही भूल गया, वो कह रही है कि पूरा परिवार ही षड्यंत्र में शामिल था, जबकि मुझे पहले से ही पता था कि इसके पास धन नहीं है और आज कह रही है कि मैं अरब पति हूँ, मैं आज तुझे बद्दुआ देने की भी स्थिति में नहीं हूँ, लेकिन ब्रह्मांड में ईश्वर नाम की कोई शक्ति है, तो वह तुझे ऐसा अंत देगा, जिसे देख कर हर इंसान की रूह काँप उठेगी ......... मैं अपने गुनहगार को कभी नहीं छोड़ता, क़ानून-वानून के चक्कर में भी नहीं पड़ता, अपना न्याय खुद ही करता हूँ, पर इस बार मैं ईश्वर के अस्तित्व को परखना चाहता हूँ कि वो है या नहीं, बस, उसके न्याय का इन्तजार तू भी कर और मैं भी करता हूँ